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________________ अध्यापक - हाँ ! हाँ !! वह तो है ही। साथ ही मुख्यतया पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि और भी अनेक शास्त्र हैं। छात्र - तो क्या समयसार और द्रव्यसंग्रह भी इसी अनुयोग के शास्त्र हैं ? अध्यापक - नहीं ! वे तो द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं; क्योंकि षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व आदि का तथा स्व-पर भेदविज्ञान आदि का वर्णन तो द्रव्यानुयोग में होता है। छात्र - इसमें भी करणानुयोग के समान केवलज्ञानगम्य कथन होता होगा? अध्यापक - नहीं ! इसमें तो चरणानुयोग के समान बुद्धिगोचर कथन होता है, पर चरणानुयोग में बाह्य क्रिया की मुख्यता रहती है और द्रव्यानुयोग में आत्मपरिणामों की मुख्यता से कथन होता है । द्रव्यानुयोग में न्यायशास्त्र की पद्धति मुख्य है। छात्र - इसमें न्यायशास्त्र की पद्धति मुख्य क्यों है ? अध्यापक - क्योंकि इसमें तत्त्व निर्णय करने की मुख्यता है। निर्णय युक्ति और न्याय के बिना कैसे होगा? __छात्र - कुछ लोग कहते हैं कि अध्यात्म-शास्त्र में बाह्याचार को हीन बताया है, पर स्थान-स्थान पर स्वच्छन्द होने का भी तो निषेध किया है। इससे तो लोग आत्मज्ञानी बनकर सच्चे व्रती बनेंगे। छात्र - यदि कोई अज्ञानी भ्रष्ट हो जाय तो? अध्यापक – यदि गधा मिश्री खाने से मर जाय तो सज्जन तो मिश्री खाना छोड़े नहीं, उसीप्रकार यदि अज्ञानी तत्त्व की बात सुनकर भ्रष्ट हो जाय तो ज्ञानी तो तत्त्वाभ्यास छोड़े नहीं; तथा वह तो पहले भी मिथ्यादृष्टि था, अब भी मिथ्यादृष्टि ही रहा। इतना ही नुकसान होगा कि सुगति न होकर कुगति होगी, रहेगा तो संसार का संसार में ही। परन्तु अध्यात्मउपदेश न होने पर भी बहुत जीवों के माक्षमार्ग का अभाव होता है और (१८) इसमें बहुत जीवों का बहुत बुरा होता है, अतः अध्यात्म-उपदेश का निषेध नहीं करना। ___ छात्र - जिनसे खतरे की आशंका हो, वे शास्त्र पढ़ना ही क्यों ? उन्हें न पढ़ें तो ऐसी क्या हानि है ? अध्यापक - मोक्षमार्ग का मूल उपदेश तो अध्यात्म-शास्त्रों में ही है, उनके निषेध से मोक्षमार्ग का निषेध हो जायेगा। छात्र - पर पहिले तो उन्हें न पढ़ें? अध्यापक - जैनधर्म के अनुसार तो यह परिपाटी है कि पहले द्रव्यानुयोगानुसार सम्यग्दृष्टि हो, फिर चरणानु-योगानुसार व्रतादि धारण कर व्रती हो। अत: मुख्य रूप से तो निचली दशा में ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। छात्र - पहिले तो प्रथमानुयोग का अभ्यास करना चाहिए? अध्यापक - पहिले इसका अभ्यास करना चाहिए, फिर उसका, ऐसा नियम नहीं है। अपने परिणामों की अवस्था देखकर जिसके अभ्यास से अपनी धर्म में रुचि और प्रवृत्ति बढ़े, उसी का अभ्यास करना अथवा कभी इसका, कभी उसका, इसप्रकार फेर-बदल कर अभ्यास करना चाहिए। कई शास्त्रों में तो दो-तीन अनुयोगों की मिली पद्धति से भी कथन होता है। प्रश्न १. अनुयोग किसे कहते हैं ? वे कितने प्रकार के हैं ? २. पं. टोडरमलजी के अनुसार अनुयोगों का अभ्यासक्रम क्या है ? ३. द्रव्यानुयोग का अभ्यास क्यों आवश्यक है ? उसमें किस पद्धति से किस बात का वर्णन होता है? ४. चरणानुयोग और करणानुयोग में क्या अन्तर है? ५. प्रत्येक अनुयोग के कम से कम दो-दो ग्रंथों के नाम लिखिए? ६. पं. टोडरमलजी के संबंध में अपने विचार व्यक्त कीजिए ? ----- (१९)
SR No.008387
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size142 KB
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