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________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ पाठ ७ चार अभाव आचार्य समन्तभद्र (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) श्री मूलसंघव्योमेन्दुर्भारते भावितीर्थकृत । देशे समन्तभद्राख्यो, मुनि यात्पदर्द्धिकः ।। -कविवर हस्तिमल लोकेषणा से दूर रहनेवाले स्वामी समन्तभद्र का जीवन-चरित्र एक तरह से अज्ञात ही है। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि महान् से महान कार्यों को करने के बाद भी उन्होंने अपने लौकिक जीवन के बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा है। जो कुछ थोड़ा बहुत प्राप्त है, वह पर्याप्त नहीं है। आप कदम्ब वंश के क्षत्रिय राजकुमार थे। आपके बाल्यकाल का नाम शान्ति वर्मा था। आपका जन्म दक्षिण भारत में कावेरी नदी के तट पर स्थित उरगपुर नामक नगर में हुआ था। आपका अस्तित्व विक्रम संवत् १३८ तक था। आपके पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। आपने अल्पवय में ही मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। दिगंबर जैन साधु होकर आपने घोर तपश्चरण किया और अगाध ज्ञान प्राप्त किया। आप जैन सिद्धांत के तो अगाध मर्मज्ञ थे ही, साथ ही तर्क, न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार, काव्य और कोष के भी पण्डित थे। आपमें बेजोड़ वाद शक्ति थी। आपने कई बार घूम-घूमकर कुवादियों का गर्व खण्डित किया था। आप स्वयं लिखते हैं - “वादार्थी विचराम्यहं नरपते, शार्दूलविक्रीडितम्।" हे राजन् ! मैं वाद के लिए सिंह की तरह विचरण कर रहा हूँ। आपके परवर्ती आचार्यों ने भी आपका स्मरण बड़े सम्मान के साथ किया है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में आपके वचनों को कुवादीरूपी पर्वतों को छिन्न-भिन्न करने के लिए वज्र के समान बताया है तथा आपको कवि, वादी, गमक और वाग्मियों का चूड़ामणि कहा है - नमः समन्तभद्राय, महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन, निर्भिन्ना: कुमताद्रयः ।। कवीनां गमकानां च, वादिनां वाग्मिनामपि। यश: सामन्तभद्रीयं, मूर्ध्नि चूडामणीयते ।। गद्य चिंतामणिकार वादीभसिंह सूरि लिखते हैं - सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः, समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः। जयन्ति वाग्वजनिपातपाटि प्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ।। चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनंदि आचार्य 'समन्तभद्रादिभवा च भारती' से कंठ विभूषित नरोत्तमों की प्रशंसा करते हैं तो आचार्य शुभचन्द्र 'ज्ञानार्णव' में इनके वचनों को अज्ञानांधकार के नाश हेतु सूर्य के समान स्वीकार करते हुए इनकी तुलना में औरों को खद्योतवत् बताते हैं - समन्तभद्रादि कवीन्द्रभास्वतां, स्फुरंति यत्रामलसूक्तिरश्मयः। वज्रन्ति खद्योतवदेव हास्यता, न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ।। आप आद्य स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपने स्तोत्र साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की है। आपकी स्तुतियों में बड़े-बड़े गंभीर न्याय भरे हुए हैं। आपके द्वारा लिखा गया 'आप्तमीमांसा' ग्रंथ एक स्तोत्र ही है, जिसे 'देवागम स्तोत्र' भी कहते हैं। वह इतना गंभीर एवं अनेकात्मक तत्त्व से भरा हुआ है कि उसकी कई टीकाएँ लिखी गई हैं, जो कि न्याय शास्त्र के अपूर्व ग्रंथ हैं। अकलंक की 'अष्टशती' और विद्यानन्दि की 'अष्टसहस्त्री' इसी की टीकाएँ हैं। प्रस्तुत 'चार अभाव' नाम का पाठ उक्त आप्तमीमांसा की कारिका क्रमांक ९, १०व ११ के आधार पर ही लिखा गया है। इसके अलावा आपने तत्त्वानुशासन, युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, जिनस्तुतिशतक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्राकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्मप्राभृत टीका और गंधहस्तिमहाभाष्य (अप्राप्य) नामक ग्रंथों की रचना की है। Shruth. Ishte
SR No.008382
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size166 KB
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