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________________ ४० पंच भाव तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ पारिणामिक भाव के ३ भेद होते हैं - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व।' इसप्रकार कुल मिलाकर जीव के असाधारण भावों के ५३ भेद होते हैं। जिज्ञासु - इनके जानने से क्या लाभ है व इनसे क्या सिद्ध होता है ? प्रवचनकार - १. पारिणामिक भाव से यह सिद्ध होता है कि जीव अनादिअनन्त, एक, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी है। २. औदयिक भाव का स्वरूप जानने से यह पता चलता है कि जीव अनादि-अनन्त, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी होने पर भी उसकी अवस्था में विकार है, जड़ कर्म के साथ उसका अनादिकालीन सम्बन्ध है तथा जब तक यह जीव अपने ज्ञातास्वभाव को स्वयं छोड़कर जड़ कर्म की ओर झुकाव करता है, तब तक विकार उत्पन्न होता रहता है; कर्म के कारण विकार नहीं होता है। ३. क्षायोपशमिक भाव से यह पता चलता है कि जीव अनादि काल से विकार करता हुआ भी जड़ नहीं हो जाता। उसके ज्ञान, दर्शन, वीर्य का आंशिक विकास सदा बना रहता है एवं सच्ची समझ के बाद वह जैसे-जैसे सत्य पुरुषार्थ को बढ़ाता है। वैसे-वैसे मोह अंशत: दूर होता जाता है। ४. आत्मा का स्वरूप यथार्थतया समझकर जब जीव अपने पारिणामिक भाव का आश्रय लेता है, तब औदयिक भाव का दूर होना प्रारम्भ होता है और सर्वप्रथम श्रद्धा गुण का औदयिक भाव दूर होता है - यह औपशमिक भाव बतलाता है। ५. अप्रतिहत पुरुषार्थ से पारिणामिक भाव का अच्छी तरह आश्रय बढ़ाने पर विकार का नाश होता है - ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है। जिज्ञासु - क्या ये पाँचों भाव सभी जीवों के सदा पाये जाते हैं ? प्रवचनकार - एक पारिणामिक भाव ही ऐसा है, जो सब जीवों के सदाकाल पाया जाता है। औदयिक भाव समस्त संसारी जीवों के तो पाया जाता है; किन्तु मुक्त जीवों के नहीं। इसीप्रकार क्षायोपशमिक भाव भी मुक्त जीवों के तो होता ही नहीं; किन्तु संसारी जीवों में भी तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवालों के नहीं होता। जिज्ञासु - क्षायिक भाव तो मुक्त जीवों के पाया जाता है ? प्रवचनकार - हाँ ! मुक्त जीवों के तो क्षायिक भाव पाया जाता है, किन्तु समस्त संसारी जीवों के नहीं। अभव्यों और मिथ्यादृष्टियों के तो क्षायिक भाव होने का प्रश्न ही नहीं। सम्यक्त्वी और चारित्रवंतों में भी क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक चारित्रवान जीवों तथा अरहतों के ही पाया जाता है। औपशमिक भाव सिर्फ औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्रवतों के ही होता है। इस तरह हम देखते हैं कि - १. सबसे कम संख्या औपशमिक भाववालों की है, क्योंकि इसमें औपशमिक सम्यक्त्व तथा औपशमिक चारित्रवंत जीवों का ही समावेश हुआ है। २. औपशमिक भाववालों से अधिक संख्या क्षायिक भाववाले जीवों की है, क्योंकि इसमें क्षायिक समकिती, क्षायिक चारित्रवंत जीवों तथा अरहंत और सिद्धों का समावेश होता है। ३. क्षायिक भाववालों से अधिक संख्या क्षायोपशमिक भाववाले जीवों की है, क्योंकि इसमें एक से लेकर बारहवें गुणस्थानवाले जीवों का समावेश होता है। ४. क्षायोपशमिक भाववालों से भी अधिक संख्या औदयिक भाववालों की है, क्योंकि इसमें एक से लेकर चौदहवें गुणस्थानवी जीवों का समावेश है। ५. सबसे अधिक संख्या पारिणामिक भाववाले जीवों की है, क्योंकि इसमें निगोद से लेकर सिद्ध तक के सर्व जीवों का समावेश होता है। इसी क्रम को लक्ष में रखकर सूत्र में औपशमिकादिक भावों का क्रम रखा गया है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि - १. पारिणामिक भाव के बिना कोई जीव नहीं है। २. औदयिक भाव के बिना कोई संसारी जीव नहीं है। ३. क्षायोपशमिक भाव के बिना कोई छद्मस्थ नहीं है। ४. क्षायिक भाव के बिना क्षायिक समकिती, क्षायिक चारित्रवंत और अरहंत तथा सिद्ध नहीं हैं। १. जीवभव्याभव्यत्वानि च : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २, सूत्र : ७ (210 DShrutes 5.6.04 shruteshik T an Patna Part-
SR No.008382
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size166 KB
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