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________________ ३४ पाठ६ पंच भाव सुख क्या है? आत्मा स्वयं को न जानकर अज्ञान (मिथ्याज्ञान) रूप परिणमित हो रहा है; उसीप्रकार यह जीव स्वयं सुख की आशा से पर-पदार्थों की ओर ही प्रयत्नशील है व यही इसके दुःख का मूल कारण है। इसकी सुख की खोज की दिशा ही गलत है। दिशा गलत है, अत: दशा भी गलत (दुःखरूप) ही होगी। सच्चा सुख पाने के लिए हमें परोन्मुखी दृष्टि छोड़कर स्वयं को (आत्मा को) देखना होगा, स्वयं को जानना होगा, क्योंकि अपना सुख अपनी आत्मा में है। आत्मा अनंत आनंद का कंद है, आनंदमय है; अतः सुख चाहनेवालों को आत्मोन्मुखी होना चाहिए। परोन्मुखी दृष्टिवाले को सच्चा सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। ___सच्चा सुख तो आत्मा द्वारा अनुभव की वस्तु है; कहने की नहीं, दिखाने की भी नहीं। समस्त पर-पदार्थों से दृष्टि हटाकर अंतर्मुख होकर अपने ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा में तन्मय होने पर ही वह प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि आत्मा सुखमय है, अतः आत्मानुभूति ही सुखानुभूति है। जिसप्रकार बिना अनुभूति के आत्मा प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार बिना आत्मानुभूति के सच्चा सुख भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। गहराई से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि आत्मा को सुख कहीं से प्राप्त नहीं करना है; क्योंकि वह सुख से ही बना है, सुखमय ही है, सुख ही है। जो स्वयं सुखस्वरूप हो, उसे सुख क्या पाना ? सुख पाने की नहीं, भोगने की वस्तु है, अनुभव करने की चीज है। सुख के लिए तड़पना क्या ? सुख में तड़पन नहीं, तड़पन में सुख का अभाव है, तड़पन स्वयं दुःख है; तड़पन का अभाव ही सुख है। इसीप्रकार सुख को क्या चाहना ? चाह स्वयं दुःखरूप है; चाह का अभाव ही सुख है। __'सुख क्या है ?', 'सुख कहाँ है ?', 'वह कैसे प्राप्त होगा ?' - इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है, एक ही समाधान है और वह है आत्मानुभूति। उस आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्वविचार है। पर ध्यान रहे वह आत्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका-तत्त्वविचार का भी अभाव करके उत्पन्न होती है। मैं कौन हूँ ?' 'आत्मा क्या है ?' और 'आत्मानुभूति कैसे प्राप्त होती है?' ये पृथक् विषय हैं; अत: इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित है। आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामीमुनीश्वरम् ।। कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पानेवाले आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र से जैनसमाज जितना अधिक परिचित है, उनके जीवन-परिचय के संबंध में उतना ही अपरिचित है। ये कुन्दकुन्दाचार्य के पट्ट शिष्य थे तथा विक्रम की प्रथम शताब्दी के अन्तिम काल में तथा द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत-भूमि को पवित्र कर रहे थे। आचार्य गद्धपिच्छ उमास्वामी उन गौरवशाली आचार्यों में हैं, जिन्हें समग्र आचार्य परम्परा में पूर्ण प्रामाणिकता और सम्मान प्राप्त है। जो महत्त्व वैदिकों में गीता का, ईसाइयों में बाइबिल का और मुसलमानों में कुरान का माना जाता है, वही महत्त्व जैन परम्परा में गद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त है। इसका दूसरा नाम मोक्षशास्त्र भी है। यह संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है। इस महान ग्रन्थ पर दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में संस्कृत व हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में टीकाएँ व भाष्य लिखे गये हैं। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में पूज्यपाद आचार्य देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव का तत्त्वार्थ राजवार्तिक और विद्यानन्दि का तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक (18) Shres. rulesh t a Part 1
SR No.008382
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size166 KB
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