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________________ ६०० समयसार इस भगवान आत्मा को न तो कुछ करने के लिए अन्यत्र जाना है और न कुछ पाने के लिए पर की ओर झाँकना है। सब कुछ अपने अन्दर ही है। भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करणशक्तिः । स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदानशक्तिः । उत्पादव्ययालिंगितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्तिः। कर्मशक्ति और कर्तृत्वशक्ति के निरूपण के उपरान्त अब करणशक्ति की चर्चा करते हैं - ४३. करणशक्ति ४३वी करणशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - करणशक्ति प्रवर्तमान भाव के होने में साधकतममयी है। इस भगवान आत्मा में कर्मशक्ति और कर्तृत्वशक्ति के समान एक करण नामक शक्ति भी है। जिसके कारण यह भगवान आत्मा सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायों को प्रगट करता है, कर सकता है। कर्तृत्वशक्ति के कारण आत्मा अपने निर्मल भावों का कर्ता है, कर्मशक्ति के कारण निर्मल परिणामों को प्राप्त करता है और करणशक्ति के कारण वह निर्मल परिणामों का स्वयं कारण भी है। कर्ता भी स्वयं, कर्म भी स्वयं और करण भी स्वयं - इसप्रकार निर्मल पर्यायों के प्रगट करने में वह पूर्णत: स्वाधीन है। सम्यग्दर्शनादि निर्मल भावों के लिए उसे अन्य की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि निर्मल पर्यायों को प्रगट करने की पूर्ण सामर्थ्य इन कारक संबंधी छह शक्तियों के माध्यम से उसमें ही विद्यमान है। आत्मा की अनंत स्वतंत्रता की घोषक ये शक्तियाँ आत्मा की अपनी निधियाँ हैं। उक्त विश्लेषण का तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धदशा तक की समस्त निर्मल पर्यायों को प्राप्त करने का साधन इस शक्ति के माध्यम से यह आत्मा स्वयं ही है; न तो परपदार्थरूप निमित्त साधन हैं और न शुभरागरूप नैमित्तिक भाव ही साधन हैं। अत: आत्मा की साधना के लिए, अनंत अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करने के लिए न तो दीनता से पर की ओर देखने की आवश्यकता है और न शुभभावों में धर्म मानकर उनमें उपादेयबुद्धि रखकर उन्हें करने की आवश्यकता है। तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा न तो पर का कर्ता है, न कर्म और न करण (साधन) ही है तथा परपदार्थ भी इस भगवान आत्मा के कर्ता, कर्म और करण नहीं हैं। इसप्रकार न तो इसके माथे पर पर के कर्तृत्व का भार ही है और न पर से कुछ अपेक्षा ही है। इसप्रकार करणशक्ति की चर्चा करने के उपरान्त अब सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति की चर्चा करते हैं - ४४-४५. सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति इस ४४वीं सम्प्रदानशक्ति और ४५वीं अपादानशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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