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________________ ५५४ समयसार ___ अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्धयर्थमिति ब्रूमः । न खल्वनेकांतमंतरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति। __तथाहि - इह हि स्वभावत एव बहुभावनिर्भरे विश्वे सर्वभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निधुषेमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव । (१-२) तत्र यदायं ज्ञानमात्रो भावः शेषभावैः सह स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञेयसंबंधतयाऽनादिशेयपरिणमनात् ज्ञानतत्त्वं पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानी भूत्वा नाशमुपैति, तदा स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकांत एव तमुद्गमयति । ___ यदा तु सर्व वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकांत एव नाशयितुं न ददाति । समाधान : ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अज्ञानियों की भी समझ में आ जाये - इस उद्देश्य से स्याद्वाद का स्वरूप समझाया जाता है - ऐसा हम कहते हैं; क्योंकि स्याद्वाद के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु की सिद्धि-प्रसिद्धि संभव नहीं है। अब इसी बात को विस्तार से समझाते हैं - स्वभाव से ही बहुत से भावों (पदार्थों) से भरे इस विश्व में सर्व भावों (पदार्थों) का स्वभाव से (सत्स्वभाव से - अस्तित्व की अपेक्षा - महासत्ता की अपेक्षा) अद्वैत होने पर भी द्वैत का निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तुयें स्वरूप में प्रवृत्ति और पररूप से व्यावृत्ति के द्वारा दोनों भावों (अस्तित्व और नास्तित्व) से सहित हैं। ___ आचार्यदेव के उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि अनन्त-धर्मात्मक आत्मवस्तु को स्याद्वाद से ही समझा जा सकता है; क्योंकि बिना अपेक्षा के वस्तु के स्वरूप को समझ पाना असंभव है। अब इसी बात को १४ बोलों द्वारा पहले गद्य में और फिर १४ छन्दों द्वारा पद्य में विस्तार से समझाते हैं। (१-२) तत्-अतत् - जब यह ज्ञानमात्रभाव (आत्मा) शेष भावों (पदार्थों) के साथ निजरस के भार से प्रवर्तित ज्ञाता-ज्ञेय संबंध के कारण अनादिकाल से ज्ञेयाकार परिणमन के द्वारा ज्ञानतत्त्व (आत्मा) को ज्ञेयरूप (परज्ञेयरूप) जानकर अज्ञानी होता हुआ नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव में स्वरूप (ज्ञानरूप) से तत्पना प्रकाशित करके ज्ञातारूप (ज्ञानाकार) परिणमन के कारण ज्ञानी करता हुआ अनेकान्त (स्याद्वाद) ही उसका उद्धार करता है। और जब वही ज्ञानमात्रभाव (आत्मा) अज्ञानतत्त्व को (आत्मा से भिन्न पदार्थों को) 'वस्तुत: यह सब आत्मा ही है - इसप्रकार स्वरूप (ज्ञानरूप) से अंगीकार करके विश्व के ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है; तब पररूप से अतत्पना प्रकाशित करके ज्ञान को विश्व से भिन्न दिखाता हुआ अनेकान्त ही उसे (ज्ञानमात्रभाव को) अपना नाश नहीं करने देता।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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