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________________ ५५० समयसार आखिर यह प्रतिपादन भी विकल्पजाल ही तो है; तुम भी विकल्पों से विराम लेकर स्वयं में समा जाओ और हम तो स्वयं में जाते ही हैं। शुद्धात्मा के स्वरूप का प्रतिपादक यह ग्रन्थाधिराज अब समापन की ओर जा रहा है। इसलिए अब अन्तिम गाथा ४१५ में समयसार के अध्ययन का फल बताते हुए इसके माध्यम से निज आत्मा को जानकर उसी में स्थित होने की प्रेरणा दी जा रही है। उक्त अन्तिम गाथा की उत्थानिकारूप जो कलश लिखा गया है, उसका पद्यानुवाद इसप्रकार है (दोहा) ज्ञानानन्दस्वभाव को, करता हुआ प्रत्यक्ष। __ अरे पूर्ण अब हो रहा, यह अक्षय जगचक्षु ।।२४५।। आनन्दमय विज्ञानघन शुद्धात्यारूप समयसार को प्रत्यक्ष करता हुआ यह एक अद्वितीय जगतचक्षु समयसार नामक ग्रन्थाधिराज पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। अब आचार्य कुन्दकुन्ददेव ग्रन्थ का समापन करते हुए इस ग्रन्थ के स्वाध्याय का फल उत्तम सुख की प्राप्ति बताते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्त्वार्थ से जो जानकर । निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख को प्राप्त हों ।।४१५।। जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर, अर्थ और तत्त्व से जानकर इसके विषयभूत अर्थ में स्वयं को स्थापित करेगा; वह उत्तमसुख (अतीन्द्रिय आनन्द) को प्राप्त करेगा। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "जो विश्वप्रकाशक होने से विश्वमय समयसारभूत भगवान आत्मा का प्रतिपादन करता है; इसलिए स्वयं शब्दब्रह्म के समान है; ऐसे इस समयसार शास्त्र को जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर विश्व को प्रकाशित करने में समर्थ परमार्थभूत, चैतन्यप्रकाशरूप आत्मा का निश्चय रूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्माणि सरिंभेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविजृम्भमाणचिदेकरसनिर्भरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानन्दशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति। (अनुष्टुभ् ) इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम् । अखंडमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ।।२४६।। इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोऽङ्कः। करता हुआ इस शास्त्र को अर्थ से और तत्त्व से जानकर; उसी के अर्थभूत एक पूर्ण विज्ञानघन भगवान परमब्रह्म में सर्व उद्यम से स्थित होगा; वह आत्मा उसी समय साक्षात् प्रगट होनेवाले एक चैतन्यरस से परिपूर्ण स्वभाव से सुस्थित और निराकुल होने से जो परमानन्द शब्द से वाच्य उत्तम और अनाकुल सुखस्वरूप स्वयं ही हो जायेगा।" इसप्रकार इस गाथा में ग्रन्थ के अध्ययन का फल बताते हुए यह कहा गया है कि इस समयसार के प्रतिपाद्य आत्मतत्त्व को तत्त्व और अर्थ से जानकर उसी में जमने-रमनेवालों को उत्तम सुख की प्राप्ति होती है, मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। इसके उपरान्त आत्मख्याति के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति टीका का समापन करते हुए इस अधिकार के अन्तिम कलश में कहते हैं कि उक्त सम्पूर्ण कथन से अन्ततोगत्वा यही सिद्ध
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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