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________________ ५४७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार यद्यपि यहाँ ४१४ वीं गाथा में समागत प्रकरण समाप्त हो गया है; तथापि आचार्य जयसेन यहाँ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा करते हैं; जो ३२०वीं गाथा के उपरान्त की गई चर्चा के समान ही अत्यन्त उपयोगी है। वह चर्चा इसप्रकार है – “यहाँ शिष्य कहता है कि केवलज्ञान शुद्ध है और छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध है। छद्मस्थ का वह अशुद्धज्ञान शुद्ध केवलज्ञान का कारण नहीं हो सकता; क्योंकि इसी शास्त्र में कहा है कि सुद्धं तु वियाणन्तो सुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो - शुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव शुद्धात्मा को प्राप्त करता है।। शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हए आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है। क्योंकि छद्मस्थों का ज्ञान सर्वथा अशुद्ध नहीं है, वह कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध है। यद्यपि छद्मस्थ का ज्ञान केवलज्ञान की अपेक्षा शुद्ध नहीं है; तथापि मिथ्यात्व और रागादि से रहित वीतराग सम्यक्त्व और चारित्र सहित होने से शुद्ध ही है। अभेदनय से छद्मस्थ का वह भेदज्ञान आत्मस्वरूप ही होता है, आत्मानुभूतिस्वरूप ही होता है; इसकारण एकदेशव्यक्तिरूप ज्ञान के द्वारा सकलादेशव्यक्तिरूप केवलज्ञान के हो जाने में कोई दोष नहीं है। इस पर यदि यह मत व्यक्त किया जाये कि सावरण होने से अथवा क्षायोपशमिक होने से छद्मस्थ का ज्ञान शुद्ध नहीं हो सकता; ऐसी स्थिति में तो फिर किसी भी छद्मस्थ को मोक्ष होगा ही नहीं; क्योंकि छद्मस्थों का ज्ञान यद्यपि एकदेश निरावरण है, तथापि केवलज्ञान की अपेक्षा नियम से सावरण होने से क्षायोपशमिक ही है। इस पर यदि आपका अभिप्राय यह हो कि छद्मस्थ के शुद्धपारिणामिकभाव होने से उसे मोक्ष हो जायेगा तो यह भी घटित नहीं होगा; क्योंकि केवलज्ञान होने से पहले पारिणामिकभाव शक्तिरूप से शुद्ध है, व्यक्तिरूप से नहीं। इसका विशेष स्पष्टीकरण इसप्रकार है कि पारिणामिकभाव जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व के रूप में तीन प्रकार का है। इसमें अभव्यत्व तो मुक्ति का कारण होता ही नहीं है; अब रहे जीवत्व और भव्यत्व; सो इन दोनों का शुद्धत्व तो तब प्रगट होता है, जब यह छद्मस्थ जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् मोहनीय के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से होनेवाले वीतराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणमित होता है। यह शुद्धता मुख्यरूप से तो औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव संबंधी है, पारिणामिक भाव संबंधी बात तो यहाँ गौण है अर्थात् गौणरूप से है। शुद्ध पारिणामिकभाव न तो बंध का कारण है और न मोक्ष का - यह बात पंचास्तिकाय के निम्नांकित श्लोक में स्पष्ट है मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधा। बंधमौदयिको भावो निष्क्रिय: पारिणामिकः ।। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव मोक्ष को करते हैं, औदयिकभाव बंध करता है और पारिणामिकभाव निष्क्रिय है अर्थात् कुछ नहीं करता।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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