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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५४५ हए कहते हैं कि “वीतराग स्वसंवेदनज्ञानलक्षणभावलिंग से रहित नग्नदिगम्बर निर्ग्रन्थदशा को धारण करनेवाले मुनिलिंगी और लँगोटी आदि चिह्नों से जाने जानेवाले ऐलक-क्षुल्लक गृहस्थलिंगी कहे जाते हैं।" देखो, यहाँ निश्चय से रहित व्यवहार में रमनेवालों को व्यवहारविमूढ कहा है। यह कहा है कि यह तो अनादि से ही चलती आई व्यवहारविमूढ़ता है। जबतक तुम निश्चय पर आरूढ़ होकर इस व्यवहारविमूढ़ता को नहीं छोड़ोगे, तबतक कारणसमयसाररूप भगवान आत्मा की प्राप्ति नहीं होगी। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) तुष माहिं मोहित जगतजन ज्यों एक तुष ही जानते। वे मूढ़ तुष संग्रह करें तन्दुल नहीं पहिचानते ।। व्यवहारमोहित मूढ़ त्यों व्यवहार को ही जानते । आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते ।।२४२ ।। जिसप्रकार तुष को ही चावल मान लेनेवाले तुष विमोहित दृष्टिवाले लोग असली चावल को नहीं जानते; उसीप्रकार व्यवहार में विमोहित बुद्धिवाले लोग परमार्थ को नहीं जानते हैं। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि छिलके सहित चावलों को धान कहे जाने के कारण कुछ नासमझ जगतजन यह नहीं समझ पाते कि खाने योग्य तो चावल ही हैं, उसका छिलका (स्वागता) द्रव्यलिंगममकारमीलितैर्दृश्यते समयसार एव न। द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः ।।२४३।। ववहारिओ पुणणओदोण्णि विलिंगाणि भणदि मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ।।४१४।। व्यावहारिकः पनर्नयो द्वे अपिलिंगे भणति मोक्षपथे। निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि ।।४१४।। नहीं; उसीप्रकार मुक्ति प्राप्ति की कामनावाले कुछ अज्ञानीजन बाह्यक्रिया, शुभभाव और रत्नत्रय परिणति - इन सभी को मुक्ति का कारण कहे जाने के कारण सभी को एक-सा ही मुक्ति का कारण मान लेते हैं। इस भेद को नहीं समझते कि मुक्ति का वास्तविक कारण तो एकमात्र निश्चयरत्नत्रय ही है; नग्नदशा और शुभराग तो निश्चयरत्नत्रय के सहचारी होने से व्यवहार से मोक्षमार्ग कहे जाते हैं, वे वास्तविक मोक्षमार्ग नहीं हैं। सम्यग्ज्ञानी जीव इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। अब आगामी गाथा का सूचक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) यद्यपी परद्रव्य है द्रवलिंग फिर भी अज्ञजन ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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