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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५४३ विकल्पों का अभाव करके एकमात्र उसी का ध्यान कर, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के अभावपूर्वक ज्ञानचेतना में ही चेत और निज भगवान आत्मा में ही विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर; क्योंकि तुझे वहाँ कुछ भी उपलब्ध होनेवाला नहीं है। ___ अरहंत भगवान भी अपनी दिव्यध्वनि में यही कहते हैं कि तू हमारी ओर क्या देखता है ? स्वयं की ओर देख; क्योंकि निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति तो तुझे स्वयं के ही आश्रय से होगी, हम तो तेरे लिए परद्रव्य ही हैं। तू परद्रव्य में विहार मत कर, स्वयं में ही विहार कर! इसप्रकार आचार्यदेव यहाँ अपने उपयोग को समस्त जगत से हटाकर आत्मा में ही लगाने की प्रेरणा दे रहे हैं। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) दृगज्ञानमय वृत्त्यात्मक यह एक ही है मोक्षपथ । थित रहें अनुभव करें अर ध्यावें अहिर्निश जो पुरुष ।। जो अन्य को न छुयें अर निज में विहार करें सतत । वे पुरुष ही अतिशीघ्र ही समैसार को पावें उदित ।।२४० ।। जो पुरुष दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नियत मोक्षमार्ग में स्थित होता है, उसी का ध्यान करता है, उसी में चेतता है, उसी का अनुभव करता है और अन्य द्रव्यों का स्पर्श न करता हआ निरन्तर उसी में विहार करता है; वह पुरुष नित्योदित समयसार को अल्पकाल में ही अवश्य प्राप्त करता है। (शार्दूलविक्रीडित ) ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः। नित्योद्योतमखंडमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यंति ते ।।२४१।। पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं ।।४१३।। अब आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) जो पुरुष तज पूर्वोक्त पथ व्यवहार में वर्तन करें। तर जायेंगे यह मानकर द्रव्यलिंग में ममता धरें।। वे नहीं देखें आतमा निज अमल एक उद्योतमय । अर अखण्ड अभेद चिन्मय अज अतुल आलोकमय ।।२४१।। जो पुरुष उक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्ग को छोड़कर व्यवहारमार्ग में स्थापित अपने आत्मा के द्वारा द्रव्यलिंग में ममता धारण करते हैं; वे पुरुष तत्त्व के यथार्थ बोध से रहित होने से समय के साररूप नित्य प्रकाशमान, अखण्ड, एक, अतुल, अमल चैतन्यप्रकाशमय आत्मा को नहीं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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