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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ही संचेतन करता हूँ। १३५. मैं स्थिर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १३६. मैं अस्थिर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । ५२५ १३७. मैं आदेय नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १३८. मैं अनादेय नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १३९. मैं यशःकीर्ति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १४०. मैं अयश: कीर्ति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १४१. मैं तीर्थंकर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । नाहमुच्चैर्गोत्रकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४२ । नाहं नीचैर्गोत्रकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१४३ । नाहं दानांत रायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४४ । नाहं लाभांतरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४५ । नाहं भोगांतरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४६। नाहमुपभोगांतरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४७ । नाहं वीर्यांतरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । १४८ । १४२. मैं उच्चगोत्र कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। १४३. मैं नीचगोत्र कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १४४. मैं दानांतराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १४५. मैं लाभांतराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ । १४६. मैं भोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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