SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वरंग ३५ बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबंधपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते। तथांतर्दष्ट्या ज्ञायको भावो जीवो, जीवस्य विकारहेतरजीवः । केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापानवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकारहेतवः पुण्यपापानवसंवरनिर्जराबंधमोक्षा इति। नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ च सकलकालमेवास्खलंतमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते।। ___ एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव । या त्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव । इति समस्तमेव निरवद्यम् ।।१३।। __ बाह्यदृष्टि से देखा जाये तो जीव-पुद्गल की अनादिबंधपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; अत: इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इसीप्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाये तो एक ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है। इनमें से पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप भाव केवल जीव के विकार हैं, जीव के विशेष भाव हैं, जीवरूप भाव हैं और जीव के विकार के हेतुभूत जो पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप तत्त्व हैं; वे सभी केवल अजीव हैं। ऐसे ये नवतत्त्व, जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वयं और पर जिनके कारण हैं - ऐसे एक द्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिए इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इसप्रकार एकत्वरूप से प्रकाशित यह भगवान आत्मा शुद्धनय के रूप में अनुभव किया जाता है और यह अनुभूति आत्मख्याति ही है तथा यह आत्मख्याति सम्यग्दर्शन ही है। अत: भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं - यह कथन पूर्णत: निर्दोष है।" यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की संस्कृत भाषा में जो टीका लिखी है, उसका नाम उन्होंने ‘आत्मख्याति' रखा है और सर्वप्रथम इस गाथा की टीका में 'आत्मख्याति' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ स्वयं उन्होंने आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन किया है। आत्मख्याति का अर्थ होता है - आत्मा की प्रसिद्धि । हमारा आत्मा दूसरों को जाने या दूसरे आत्मा हमें जानें - इसका नाम आत्मख्याति या आत्मप्रसिद्धि नहीं है; अपितु अपना आत्मा स्वयं को ही जाने, अनुभव करे; अपने में ही अपनापन स्थापित करे, अपने में ही रम जाये, जम जाये,
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy