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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६७. मैं वैक्रियिकशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ६८. मैं आहारकशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हैं; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ६९. मैं तैजसशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७०. मैं कार्मणशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७१. मैं औदारिकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७२. में वैक्रियिकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७३. मैं आहारकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७४. मैं तैजसशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।७५। नाहं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।७६ । नाहं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।७७। नाहं स्वातिसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।७८। नाहं कुब्जसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।७९। नाहं वामनसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।८०। नाहं हंडकसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।८१। नाहं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।८२॥ नाहं वज्रनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।८३। नाहं नाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।८४। नाहमर्धनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।८५। नाहं कीलिकासंहनननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमा ७५. मैं कार्मणशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७६. मैं समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७७. मैं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ७८. मैं स्वातिसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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