SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४५. मैं नरक-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ___ ४६. मैं तिर्यंच-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ४७. मैं मनुष्य-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ___४८. मैं देव-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ४९. मैं नरकगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५०. मैं तिर्यंचगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५१. मैं मनुष्यगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५२. मैं देवगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। नाहमेकेंद्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५३। नाहं द्वींद्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५४। नाहं त्रींद्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५५। नाहं चतुरिंद्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५६। नाहं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५७। नाहमौदारिकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।५८। नाहं वैक्रियिकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५९। नाहमाहारकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।६०। नाहं तैजसशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।६१। नाहं कार्मणशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।६२। नाहमौदारिकशरीरांगोपांगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।६३। ५३. मैं एकेन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५४. मैं द्वीन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५५. मैं त्रीन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ५६. मैं चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy