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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार २२. मैं प्रत्याख्यानावरणीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २३. मैं संज्वलनक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २४. मैं अनन्तानुबंधिमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २५. मैं अप्रत्याख्यानावरणीमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २६. मैं प्रत्याख्यानावरणीमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हैं। २७. मैं संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २८. मैं अनन्तानुबंधिमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भो मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। २९. मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। योंकि नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।३०। नाहं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३१। नाहमनंतानुबंधिलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३२॥ नाहमप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३३। नाहं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३४। नाहं संज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३५। नाहं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलंभुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३६। नाहं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३७। नाहमरतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३८। नाहं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३९। नाहं भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४०। ३०. मैं प्रत्याख्यानावरणीमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ____३१. मैं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ३२. मैं अनन्तानुबंधिलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता है; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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