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________________ ४९३ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) जैसे दीपक दीप्य वस्तुओं से अप्रभावित । __वैसे ही ज्ञायक ज्ञेयों से विकृत ना हो ।। फिर भी अज्ञानीजन क्यों असहज होते हैं। ना जाने क्यों व्याकुल हो विचलित होते हैं ।।२२२।। जिसप्रकार दीपक दीपक से प्रकाशित होनेवाले पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता; उसीप्रकार शुद्धबोध है महिमा जिसकी ऐसा यह पूर्ण, एक और अच्युत आत्मा ज्ञेयपदार्थों से किंचित्मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति होने पर भी जिनकी बुद्धि इसप्रकार की वस्तुस्थिति के ज्ञान से रहित है - ऐसे अज्ञानी जीव अपनी सहज उदासीनता छोड़कर रागद्वेषमय होते हैं - यह बड़े खेद की बात है, आश्चर्य की बात है। (शार्दूलविक्रीडित ) रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात् । दूरा-रूढ-चरित्र-वैभव-बला-चंचच्चि-दर्चिमयीं विंदन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ।।२२३।। कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।।३८३।। आचार्यदेव खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ऐसा क्यों होता है ! तात्पर्य यह है कि यद्यपि ऐसा होना नहीं चाहिए; तथापि ऐसा होता है - यह तथ्य है। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि ज्ञेयों को जानने से ज्ञान में रंचमात्र भी विकार नहीं होता । पर के जानने को विकार का कारण मानना अज्ञान है। जिन लोगों की ऐसी मान्यता है कि पर को जानना विकार का कारण है और इसीकारण वे पर को जानने का निषेध भी करते हैं; उन्हें उक्त प्रकरण पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) राग-द्वेष से रहित भूत-भावी कर्मों से। ___मुक्त स्वयं को वे नित ही अनुभव करते हैं।। और स्वयं में रत रह ज्ञानमयी चेतनता। को धारण कर निज में नित्य मगन रहते हैं ।।२२३।। राग-द्वेषरूपी विभाव से मुक्त तेजवाले, निज चैतन्यचमत्कारी स्वभाव का नित्य स्पर्श करनेवाले, भूत और भावी कर्मों से रहित और वर्तमान कर्मोदय से भिन्न सम्यग्दृष्टि ज्ञानीजन अति प्रबल चारित्र के वैभव के बल से अपने रस से सम्पूर्ण जगत को सींचा है अर्थात् सम्पूर्ण जगत को जाना है जिसने - ऐसी चैतन्यज्योतिमयी चमकती ज्ञानचेतना का अनुभव करते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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