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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४८५ स्वयं ही अपने अज्ञानभाव के कारण अज्ञान-अवस्था में मोह-राग-द्वेषरूप परिणमता है; किसी अन्य के कारण नहीं। अपने स्वयं के राग-द्वेष-मोह का कारण पर में खोजना अज्ञान ही है। जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को मूल गाथा में स्पष्ट करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे। क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों।।३७२।। अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः। तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यते स्वभावेन ।।३७२।। नच जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकरणस्यायोगात्; सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् । __तथाहि - मृत्तिका कुंभभावेनोत्पद्यमाना किं कुंभकारस्वभावेनोत्पद्यते, किं मृत्तिकास्वभावेन? यदि कुंभकारस्वभावेनोत्पद्यते तदा कुंभकरणाहंकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितव्यापृतकरपुरुषशरीराकार: कुंभ: स्यात् । न च तथास्ति, द्रव्यांतरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । यद्येवं तर्हि मृत्तिका कुंभकारस्वभावेन नोत्पद्यते, किन्तु मृत्तिकास्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं च सति मृत्तिकाया: स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुंभकार: कुंभस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुंभकारस्वभावमस्पृशंती स्वस्वभावेन कुंभभावेनोत्पद्यते। अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के गुणों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती है; इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित होता है कि सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र विषयवस्तु को विस्तार से सोदाहरण स्पष्ट करते हैं, जिसका भाव इसप्रकार है - "और ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए कि परद्रव्य जीव को रागादिरूप परिणमाते हैं: क्योंकि अन्य द्रव्यों में अन्य द्रव्यों के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है; क्योंकि सभी द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। अब इसी बात को विस्तार से दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं - यहाँ एक प्रश्न संभव है कि घटभावरूप से उत्पन्न होती हुई मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न होती है या मिट्टी के स्वभाव से ? ___ यदि यह कहा जाये कि कुम्हार के स्वभाव से मिट्टी घटभावरूप से उत्पन्न होती है तो उस घट को उस कुम्हाररूप पुरुष के शरीराकार होना चाहिए, जो कुम्हार घट बनाने के अहंकार से भरा हुआ है और जिसका हाथ घट बनाने का व्यापार कर रहा है; परन्तु ऐसा तो होता नहीं है,
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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