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________________ ४७८ समयसार हैं; इसप्रकार कलई कलई की ही है और दीवाल दीवाल की ही है। कलई कलई की ही है - इसमें भी क्या दम है; क्योंकि दो कलई तो हैं नहीं, जिससे यह कहा जा सके कि यह कलई उस कलई की है। एक ही कलई में कलई कलई की ही है - ऐसा कहने से क्या लाभ है; इतना पर्याप्त है कि कलई तो कलई ही है। (शार्दूलविक्रीडित ) शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यांतरं जातुचित् । ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदय: किं द्रव्यांतरचुंबनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवंते जनाः।।२१५।। इसीप्रकार व्यवहार से भले ही ज्ञान को परज्ञेयों का जाननेवाला कहा जाता हो, परज्ञेयों का ज्ञायक कहा जाता है; ज्ञेयों का ज्ञायक - ऐसा कहा जाता हो; तथापि वस्तुस्थिति तो यह है कि ज्ञायक और परज्ञेय अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं; इसप्रकार ज्ञायक ज्ञायक का ही है और ज्ञेय ज्ञेय का ही है। ज्ञायक ज्ञायक का ही है - इसमें भी क्या दम है; क्योंकि दो ज्ञायक तो हैं नहीं; जिससे यह कहा जा सके कि इस ज्ञायक का वह ज्ञायक है। एक ही ज्ञायक में ज्ञायक ज्ञायक का है - ऐसा कहने से क्या लाभ है; इतना ही पर्याप्त है कि ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। जिसप्रकार ज्ञायक आत्मा के संदर्भ में स्पष्टीकरण किया गया हैउसीप्रकार दर्शक आत्मा, श्रद्धाता आत्मा और त्यागी आत्मा के संदर्भ में भी समझ लेना चाहिए। इसप्रकार यहाँ ज्ञेयपदार्थों के साथ ज्ञायक आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक संबंधी व्यवहार का निषेध किया गया है और ज्ञायक का ज्ञायक - ऐसे भेद-व्यवहार का भी निषेध किया गया है तथा ज्ञायक सो ज्ञायक - ऐसे निश्चय का प्रतिपादन कर दृष्टि को स्वभावसन्मुख करने का सफल प्रयास किया गया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि कर्ता-कर्म और भोक्ता-भोग्य संबंधी व्यवहार का निषेध तो पहले कर दिया था; अब यहाँ ज्ञाता-ज्ञेय संबंधी व्यवहार का भी निषेध करके ज्ञायक सो ज्ञायक - ऐसे निश्चय की स्थापना की जा रही है। इसके बाद आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में तीन छन्द लिखते हैं, जिनमें दो छन्द उक्त गाथाओं में प्ररूपित भाव के पोषक हैं और तीसरा छन्द आगामी गाथाओं की सूचना देता है। उक्त दश गाथाओं के भाव के पोषक उन दो कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) एक द्रव्य में अन्य द्रव्य रहता हो - ऐसा। भासित कभी नहीं होता है ज्ञानिजनों को।। शुद्धभाव का उदय ज्ञेय का ज्ञान, न जाने । फिर भी क्यों अज्ञानीजन आकल होते हैं।।२१५ ।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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