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________________ ४४१ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् स₹ वा न श्रमणानामपि चात्मा यदि करोतिषविधान् कायान् ।।३२१।। लोकश्रमणानामेकः सिद्धांतो यदि न दृश्यते विशेषः। लोकस्य करोति विष्णः श्रमणानामप्यात्मा करोति ।।३२२।। एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानांद्वयेषामपि। नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ।।३२३।। ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यंति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धांतस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः॥३२१-३२३॥ (अनुष्टुभ् ) नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुत:रिणा लौकिकजनों के मत में देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्य रूप प्राणियों को विष्णु करता है और यदि श्रमणों के मत में भी छहकाय के जीवों को आत्मा करता हो तो फिर तो लौकिकजनों और श्रमणों का एक ही सिद्धान्त हो गया; क्योंकि उन दोनों की मान्यता में हमें कोई भी अन्तर दिखाई नहीं देता। लोक के मत में विष्णु करता है और श्रमणों के मत में आत्मा करता है। इसप्रकार दोनों की कर्तृत्व संबंधी मान्यता एक जैसी ही हुई। इसप्रकार देव, मनुष्य और असुरलोक को सदा करते हुए ऐसे वे लोक और श्रमण - दोनों का ही मोक्ष दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह है कि जो श्रमण स्वयं को छहकाय के जीवों की रक्षा करनेवाला मानते हैं; उनकी मान्यता विष्णु को जगत की रक्षा करनेवाला माननेवालों के समान ही है; इसकारण लौकिकजनों के समान उन्हें भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी। उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में अति संक्षेप में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं; वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता का अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि लौकिकजनों के मत में परमात्मा विष्णु देव-नारकादि कार्य करता है और इन लोकोत्तर मुनियों के मत में स्वयं का आत्मा वे कार्य करता है - इसप्रकार दोनों में अपसिद्धान्त की समानता है। इसलिए आत्मा के नित्यकर्तृत्व की उनकी मान्यता के कारण लौकिकजनों के समान लोकोत्तर पुरुषों (मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता।" इस सबका सार यह है कि पर में कर्तत्वबद्धि ही वास्तविक कर्तत्व है और यही आत्मा का मोहरूप (मिथ्यात्वरूप) परिणमन है। अब इसी भाव का पोषक काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) जब कोई संबंध ना, पर अर आतम माहिं। तब कर्ता परद्रव्य का, किसविध आत्म कहाहिं ।।२००।। परद्रव्य और आत्मतत्त्व का कोई भी संबंध नहीं है। इसप्रकार आत्मा का परद्रव्य के साथ
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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