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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ( शिखरिणी ) अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसत: स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः । तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बंध: प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः । । १९५ ।। चेदा दु पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्स | पयडी वि चेययटुं उप्पज्जइ विणस्स ।। ३१२ ।। एवं बंधो उ दोहं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे । अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।। ३१३ ।। इसकी गहराई में जाने के लिए विशेष अध्ययन और गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। इस सिद्धान्त की विशेष जानकारी के लिए स्वामीजी की ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव व मेरी अन्य कृति क्रमबद्धपर्याय का अध्ययन करना चाहिए। - यह सब उक्त कथनानुसार यद्यपि आत्मा अकर्ता सिद्ध होता है, तथापि उसे बंध होता है अज्ञान की ही महिमा है। - अब इस आशय का कलश आत्मख्याति में आचार्यदेव लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है. ( रोला ) निजरस से सुविशुद्ध जीव शोभायमान है। झलके लोकालोक ज्योति स्फुरायमान है ॥ अहो अकर्ता आतम फिर भी बंध हो रहा । ४२९ यह अपार महिमा जानो अज्ञानभाव की । । ९९५ ।। जिसके ज्ञानस्वभाव में लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है, निजरस से विशुद्ध ऐसा यह जीव यद्यपि अकर्ता ही सिद्ध है; तथापि उसे इस जगत में कर्म की प्रकृतियों के साथ बंध होता है। वस्तुत: यह सब अज्ञान की ही गहन महिमा है। आचार्यदेव यहाँ यह बता रहे हैं कि यद्यपि यह भगवान आत्मा अकर्ता ही है; तो भी अज्ञानावस्था में इसे बंध होता है । तात्पर्य यह है कि बंध का मूलकारण अज्ञान है। अब इस अज्ञान की महिमा को गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार ( हरिगीत ) उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से । उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ।। ३१२ ।। यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का । बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ।। ३१३ ।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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