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________________ हा मोक्षाधिकार ४१९ और अप्रतिक्रमणादि से अगोचर अन्य अप्रतिक्रमणादि हैं; जो शुद्धात्मा की सिद्धिरूप अतिदुष्कर कुछ करवाता है। इस ग्रन्थ में ही आगे कहेंगे कि - कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।।इत्यादि ।।३०६-३०७॥ (हरिगीत ) शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किये गतकाल में। उनसे निवर्तन जो करे वह आतमा प्रतिक्रमण है ।। अनेक प्रकार के विस्तारवाले पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों से जो अपने आत्मा को निवृत्त कराता है; वह आत्मा स्वयं प्रतिक्रमण है।" आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का अर्थ करते समय पर्याप्त प्रकाश डाला है। एक तो उन्होंने प्रतिक्रमण, प्रतिसरण आदि आठ प्रकारों को परिभाषित किया है, जो कि अत्यन्त आवश्यक था; क्योंकि इन आठों के स्वरूप के संबंध में ही पर्याप्त जानकारी न हो तो उनके संबंध में की गई टिप्पणियों का भाव भी भासित नहीं होगा। दूसरे किंच विशेष: कहकर ज्ञानी और अज्ञानी के प्रतिक्रमणों को विस्तार से समझाया है। उनके प्रतिपादन का भाव इसप्रकार है - “(१) किये गये दोषों का निराकरण करना ‘प्रतिक्रमण' है। (२) सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा करना या प्रवृत्त होना ‘प्रतिसरण' है। (३) मिथ्यात्व व रागादि दोषों का निवारण करना 'प्रतिहरण' है। (४) पंचनमस्कार आदि मंत्रों और प्रतिमा (जिनबिम्ब) आदि बाह्यद्रव्यों के अवलम्बन से चित्त को स्थिर करना 'धारणा' है। (५) बाह्य विषय-कषायादि में ईहागत (इच्छा युक्त) चित्त का निवर्तन (निवारण) करना 'निवृत्ति' है। (६) अपने आपकी साक्षी से दोषों को प्रगट करना ‘निन्दा' है। (७) गुरु की साक्षी से दोषों को प्रगट करना ‘गर्हा' है। (८) किसी भी प्रकार का दोष हो जाने पर प्रायश्चित्त लेकर उसका शोधन करना 'शुद्धि' है। उक्त आठ प्रकार का शुभोपयोग यद्यपि मिथ्यात्वादि विषय-कषाय परिणतिरूप अशुभोपयोग की अपेक्षा सविकल्प सरागचारित्र की अवस्था में अमृतकुंभ है; तथापि राग-द्वेष-मोह, ख्यातिलाभ-पूजा, दृष्ट-श्रुत-अनुभूत भोगों की आकांक्षारूप निदानबंध आदि सभी परद्रव्यों के आलम्बनवाले विभाव परिणामों से शून्य (रहित), चिदानन्दैकस्वभाव से विशुद्ध आत्मा के आलम्बन से भरित (भरी हुई) अवस्थावाली, निर्विकल्प शुद्धोपयोगलक्षणवाली तथा अप्पडिकमणम...' इत्यादि गाथा में कथित क्रमानुसार ज्ञानीजनों के द्वारा आश्रय ली गई निश्चयअप्रतिक्रमणादिरूप जो तृतीयभूमि है, उसकी अपेक्षा वीतरागचारित्र में स्थित जनों के लिए तो
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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