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________________ ४१७ मोक्षाधिकार के अमृतकुम्भ हैं।" यह प्रश्न उन व्यवहारवादियों का है, जो ऐसा मानकर संतुष्ट हैं कि निरपराधी बनने का उपाय तो प्रतिक्रमणादि ही हैं। उनका कहना है कि अपराध का प्रायश्चित्त कर लेने पर उस अपराध के प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च । निंदा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुम्भः ।।३०६।। अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव । अनिवृत्ति-श्चानिंदा-गर्हा-ऽशुद्धि-रमृत-कुम्भः ।।३०७॥ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिःस शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ? दोष से मुक्त हो जाते हैं और इसीलिए प्रतिक्रमणादि किये जाते हैं। ऐसी स्थिति में अपराध के दोष से मुक्त होने के लिए शुद्धोपयोग की क्या आवश्यकता है ? शास्त्रों में व्यवहारप्रतिक्रमणादि की जो चर्चा है; उसी को आधार बनाकर शिष्य ने यह प्रश्न किया है; जिसका उत्तर निश्चयप्रतिक्रमणादि का स्वरूप बतानेवाली निम्नांकित गाथाओं में दिया गया है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा। निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं।।३०६।। अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा। अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्दा अमृतकुंभ हैं।।३०७।। प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहरे और शुद्धि - ये आठ प्रकार के विषकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि संभवित है। ___ अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्दा और अशुद्धि - ये आठ प्रकार के अमृतकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि का निषेध है। ___ध्यान रहे, यहाँ प्रतिक्रमण आदि को विषकुंभ (जहर का घड़ा) और अप्रतिक्रमण आदि को अमृतकुंभ (अमृत का घड़ा) कहा है; जबकि उत्थानिका में उद्धृत गाथाओं में प्रतिक्रमणादि को अमृतकुंभ और अप्रतिक्रमणादि को विषकुंभ कहा गया है। दोनों कथन एकदम परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं। जिन्हें आचारशास्त्रों में अमृतकुंभ कहा है, उन्हें ही यहाँ विषकुंभ कहा जा रहा है और जिन्हें वहाँ विषकुंभ कहा है, उन्हें ही यहाँ अमृतकुंभ बताया जा रहा है। वस्तुत: बात यह है कि आचारशास्त्रों में समागत उक्त कथन व्यवहार कथन है और यहाँ जो कथन किया जा रहा है, वह निश्चय कथन है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार खोलते हैं - "सबसे पहली बात तो यह है कि अज्ञानीजनों में पाये जानेवाले अप्रतिक्रमणादि तो
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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