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________________ मोक्षाधिकार ४१३ इसप्रकार शंकित होता हुआ लोक में घूमता है। स्तेयादीन् राधान् यः करोति स तु शंकितो भ्रमति । मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन् ।।३०१।। यो न करोत्यपराधान् स निश्शंकस्तु जनपदे भ्रमति । नापि तस्य बद्धं यच्चितोत्पद्यते कदाचित् ।।३०२॥ एवमस्मि सापराधो बध्येऽहं तु शंकितश्चेतयिता। यदि पुनर्निरपराधो निश्शंकोऽहं न बध्ये ।।३०३।। यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंधशंका संभवति, यस्तु तं न करोति तस्य सा न संभवति; तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंधशंका संभवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न संभवतीति नियमः। अत: सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् ।।३०१-३०३॥ जो पुरुष अपराध नहीं करता है, वह लोक में निःशंक घूमता है; क्योंकि उसे बँधने की चिन्ता कभी भी उत्पन्न नहीं होती। इसीप्रकार अपराधी आत्मा 'मैं अपराधी हैं, इसलिए मैं बँधूंगा' - इसप्रकार शंकित होता है और यदि वह निरपराध हो तो 'मैं नहीं बंधूंगा' - इसप्रकार निःशंक होता है। उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - "जिसप्रकार जगत में जो पुरुष परद्रव्य के ग्रहणरूप अपराध को करता है, उसको बँधने की शंका होती ही है और जो इसप्रकार के अपराध नहीं करता, उसे बँधने की शंका भी नहीं होती; उसीप्रकार यह आत्मा भी अशुद्ध वर्तता हुआ परद्रव्य के ग्रहणरूप अपराध करता है तो उसे बंध की शंका होती है तथा जो आत्मा शुद्ध वर्तता हुआ उक्तप्रकार का अपराध नहीं करता, उसे बंध की शंका नहीं होती - ऐसा नियम है। इसलिए समस्त परकीय भावों के सर्वथा परिहार द्वारा शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने पर ही निरपराधता होती है।" उक्त गाथाओं में यही कहा गया है कि जिसप्रकार लोक में अपराध करनेवाला निरन्तर सशंक रहता है, उसे ऐसी शंका निरन्तर बनी ही रहती है कि मैं पकड़ा न जाऊँ। इसीकारण वह बंधन को प्राप्त होता है। उसीप्रकार आत्मा की आराधना से रहित लोग पुण्य-पापरूप भावों में परिणमित होते रहते हैं और निरन्तर सशंक रहते हुए बंधन को प्राप्त होते हैं। जिसप्रकार लोक में निरपराधी निरन्तर नि:शंक रहते हए बंधन को प्राप्त नहीं होते; उसीप्रकार आत्मा की आराधना करनेवाले निरपराधी आत्मार्थी भाई भी निरन्तर नि:शंक रहते हैं और बंधन को भी प्राप्त नहीं होते। इसलिए निरपराधी रहने के लिए परभावों के परित्याग द्वारा आत्मा को ग्रहण करना चाहिए, हाता
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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