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________________ ४०८ समयसार देखते हुए को देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्धदर्शनमात्र भाव हूँ। अपिच - ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव; जानन्नयेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा न जानामि; न जानन जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानंतं जानामि; किंतु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि। ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते - चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने । ततः सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रांतत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ - स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्याचेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा। ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगंतव्यागार९८-२९एगा ___ इसीप्रकार मैं जाननेवाले आत्मा को ग्रहण करता हूँ। 'ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'जानता ही हूँ'; जानता हुआ ही जानता हूँ, जानते हुए के द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुए के लिए ही जानता हूँ, जानते हुए से ही जानता हूँ, जानते हुए में ही जानता हूँ, जानते हुए को ही जानता हूँ। अथवा - नहीं जानता; न जानते हुए जानता हूँ, न जानते हुए के द्वारा जानता हूँ, न जानते हुए के लिए जानता हूँ, न जानते हुए से जानता हूँ, न जानते हुए में जानता हूँ, न जानते हुए को जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्धज्ञप्ति (जाननक्रिया) मात्र भाव हूँ। प्रश्न - चेतना दर्शनज्ञान भेदों का उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतनेवाला दृष्टा व ज्ञाता होता है ? उत्तर - प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है और वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती%B क्योंकि सभी वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं। उसके जो दो रूप हैं, वे दर्शन और ज्ञान हैं। इसलिए वह चेतना ज्ञान-दर्शन - इन दो रूपों का उल्लंघन नहीं करती। यदि चेतना ज्ञानदर्शन का उल्लंघन करे तो सामान्यविशेष का उल्लंघन करने से चेतना ही न रहे। उसके अभाव में दो दोष आते हैं - १. अपने गुण का नाश होने से चेतन को अचेतनत्व हो जायेगा। २. व्यापक चेतना के अभाव में व्याप्य चेतन का अभाव हो जायेगा। इसलिए इन दोषों के भय से चेतना को ज्ञानदर्शनस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिए।" इसप्रकार देखनेवाले आत्मा को तथा जाननेवाले आत्मा को कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकों के भेदपूर्वक ग्रहण करके, तत्पश्चात् कारकभेदों का निषेध करके आत्मा को अर्थात् अपने को दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र भावरूप अनुभव करना चाहिए अर्थात् अभेदरूप से अनुभव करना चाहिए।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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