SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षाधिकार अविनाभावी सम्बन्ध होने से आत्मा चिन्मात्र ही है - ऐसा निश्चय करना चाहिए । बंधस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणारागादयः स्वलक्षणम् । न च रागादय आत्मद्रव्यसाधारणतां ब्रिभाणा: प्रतिभासंते, नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च यावदेव समस्तस्वपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभासित तावन्त एव रागादयः प्रतिभान्ति, रागादीनं तरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव, नैकद्रव्यत्वात्; चेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः, प्रदीप्यमानो घटादि: प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव, चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम् । एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्त्या भेदसंभावनाभावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोह:, स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव । । २९४ । । ४०३ बंध का लक्षण आत्मद्रव्य से असाधारण - ऐसे रागादिभाव हैं; ये रागादिभाव आत्मद्रव्य के साथ साधारणता (एकत्वरूप) को धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, अपितु वे सदा चैतन्य - चमत्कार से भिन्नरूप ही प्रतिभासित होते हैं । तात्पर्य यह है कि जिन-जिन गुण- -पर्यायों में चैतन्यलक्षण व्याप्त होता है; वे सब गुण और पर्यायें आत्मा ही हैं - ऐसा जानना चाहिए । और यह चैतन्य आत्मा अपनी समस्त पर्यायों में व्याप्त होता हुआ जितना प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि जहाँ रागादिक नहीं होते, वहाँ भी चैतन्य का आत्मलाभ होता है अर्थात् आत्मा होता है 1 और जो चैतन्य के साथ रागादिभावों की उत्पत्ति भासित होती है; वह तो चेत्य- चेतकभाव (ज्ञेय - ज्ञायक भाव ) की अति निकटता के कारण ही भासित होती है, रागादि और आत्मा के एकत्व के कारण नहीं । जिसप्रकार दीपक के द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक पदार्थ दीपक के प्रकाशत्व को ही प्रगट करते हैं, घटत्वादिक को नहीं; उसीप्रकार आत्मा के ज्ञान में ज्ञात होनेवाले रागादिभाव आत्मा के चेतकत्व को ही प्रकट करते हैं, रागादिकत्व को नहीं । ऐसा होने पर भी आत्मा और बंध की अति निकटता के कारण भेदसंभावना का अभाव होने से अर्थात् भेद दिखाई न देने से अज्ञानी को अनादिकाल से आत्मा और रागादि में एकत्व का व्यामोह (भ्रम) है; जो कि प्रज्ञा द्वारा अवश्य ही छेदा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि उक्त एकत्व के व्यामोह को आत्मसन्मुख ज्ञान की पर्याय द्वारा अवश्य ही मिटाया जा सकता है।" उक्त सम्पूर्ण चिन्तन का निष्कर्ष यह है कि इस गाथा में यही कहा गया है कि जीव और बंध को उनके स्वलक्षणों से जानकर, उनके बीच की अन्त: सन्धि को पहिचानकर, बुद्धि की तीक्ष्णता से उन्हें भेदकर, छेदकर, बंध से विरक्त होकर और उससे भिन्न अपने आत्मा में अनुरक्त होकर, उसी में समा जाओ; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy