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________________ समयसार ३८८ अब इस भाव का पोषक और आगामी गाथा का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ।।१७७।। रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणमंतो रागादि बंधदि पुणो वि।।२८१।। रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं द परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ।।२८२।। रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि ।।२८१।। रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता ।।२८२।। (दोहा) ऐसे वस्तुस्वभाव को, ना जाने अल्पज्ञ । धरे एकता राग में, नहीं अकारक अज्ञ ।।१७७।। अज्ञानी अपने स्वभाव को नहीं जानता - इसकारण रागादि भावों में अपनापन करता है। यही कारण है कि वह उन रागादि भावों का कर्ता होता है। उक्त कलश में यह कहा गया है कि अज्ञानी अपने स्वभाव को न जानने के कारण रागादि भावों का कर्ता होता है; अब इसी बात को आगामी गाथाओं द्वारा कहते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत) राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो। उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन करे ।।२८१।। राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो। उनरूप परिणत आतमा रागादि का बंधन करे ।।२८२।। राग-द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर अर्थात् उनके उदय होने पर जो भाव होते हैं; उनरूप परिणमित होता हुआ अज्ञानी रागादि को पुन: पुन: बाँधता है। राग-द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर अर्थात् उनके उदय होने पर जो भाव होते हैं; उनरूप परिणमित हुआ आत्मा रागादि को बाँधता है। उक्त दोनों गाथायें लगभग एक-सी ही हैं। इनमें मात्र इतना ही अन्तर है कि प्रथम गाथा में अन्तिम शब्द हैं - बंधदि पुणो वि और दूसरी गाथा में उनके स्थान पर बंधदे चेदा शब्दों का प्रयोग
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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