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________________ ३८४ समयसार का आश्रय है; क्योंकि छहकाय के जीवों की करुणा के सद्भाव में या असद्भाव में शुद्धात्मा की रमणता के सद्भाव से चारित्र का सद्भाव है ।" ( उपजाति ) रागादयो बंधनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्ना: पुनरेवमाहुः ।। १७४ । । इसप्रकार आत्मख्याति में न्यायशास्त्र की पद्धति से तर्क की कसौटी पर कसकर यह सिद्ध किया गया है कि आचारांगादि शब्दश्रुत के ज्ञानरूप व्यवहारज्ञान, नव तत्त्वार्थ के श्रद्धानरूप व्यवहारश्रद्धान और छहकाय के जीवों की रक्षारूप व्यवहारचारित्र वास्तविक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र नहीं हैं; किन्तु आत्मज्ञानरूप निश्चयज्ञान, आत्मदर्शनरूप निश्चयदर्शन और आत्मस्थिरतारूप निश्चयचारित्र ही वास्तविक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र हैं और इन तीनों की एकता ही वास्तविक मोक्षमार्ग है। यही कारण है कि व्यवहारनय निषेध करने योग्य है और निश्चयनय उसका निषेध करनेवाला है । इसप्रकार यह सुनिश्चित होता है कि व्यवहारनय और निश्चयनय में परस्पर निषेध्यनिषेधक संबंध है । इन गाथाओं के बाद आचार्य जयसेन की टीका में चार गाथायें आती हैं; जिनमें दो गाथायें तो आत्मख्याति में आगे २८६ व २८७वीं गाथा के रूप में आनेवाली हैं और दो गाथायें आत्मख्याति में हैं ही नहीं। उक्त चारों गाथाओं का अनुशीलन आगे यथास्थान किया जायेगा । अब यहाँ आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है( सोरठा ) कहे जिनागम माहिं, शुद्धातम से भिन्न जो । रागादिक परिणाम, कर्मबंध के हेतु वे ।। यहाँ प्रश्न अब एक, उन रागादिक भाव का। यह आतम या अन्य, कौन हेतु है अब कहैं ।। १७४।। शुद्ध चैतन्यमात्रज्योति से भिन्न रागादिभाव ही बंध के कारण हैं - यह बात तो कह दी गई। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन रागादिभाव का निमित्त कौन है - अपना आत्मा या कोई अन्य ? इसकी चर्चा पुनः आगामी गाथाओं में की जा रही है। इस कलश में तो मात्र इतनी बात ही कही गई है कि जो रागादिभाव कर्मबंध के हेतु हैं; उनका हेतु (निमित्त) कौन है आत्मा या अन्य पदार्थ ? इसप्रकार इस कलश मात्र यह प्रश्न ही उपस्थित किया गया है जिसका उत्तर आगामी
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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