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________________ समयसार ३७६ इस गाथा का अर्थ तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन ने अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार किया है - “जबतक यह आत्मा बाह्यविषयरूप शरीर, स्त्री-पुत्र आदि में ये मेरे हैं - इत्यादि रूप ममत्वमय संकल्प करता है और अन्तर में हर्ष-विषादरूप विकल्प करता है; तबतक अनन्त किमेतदध्यवसानं नामेति चेत् - बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं। एक्कमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो॥२७१।। बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम् । एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ।।२७१।। - स्वपरयोरविवेकै सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद्व्यवसाय:, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भाव:, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः ।।२७१।। ज्ञानादि से समृद्ध आत्मतत्त्व को हृदय में नहीं जानता है । जबतक इसप्रकार का आत्मा अन्तर में स्फुरायमान नहीं होता, तबतक शुभाशुभभावों को उत्पन्न करनेवाले कर्म करता है।" इसप्रकार इस गाथा में भी प्रकारान्तर से यही कहा गया है कि स्वानुभूति से रहित संकल्पविकल्परूप अध्यवसानभाव ही मूलत: बंध के कारण हैं। विगत गाथाओं में बारम्बार अध्यवसान' शब्द का उपयोग किया गया है और अध्यवसानों को ही बंध का कारण बताया गया है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर ये अध्यवसान हैं क्या ? आखिर अध्यवसान कहते किसे हैं ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में यह २७१वीं गाथा लिखी गई है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) व्यवसाय बुद्धी मती अध्यवसान अर विज्ञान भी। एकार्थवाचक हैं सभी ये भाव चित परिणाम भी ।।२७१।। बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम - ये सब एकार्थवाची ही हैं, पर्यायवाची ही हैं। तात्पर्य यह है कि अध्यवसाय शब्द से जो भाव प्रदर्शित किया जाता है, वही भाव उक्त शब्दों से भी व्यक्त किया जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने यद्यपि इस गाथा की टीका अत्यन्त संक्षेप में लिखी है; तथापि उसमें अध्यवसान के इन नामों का अर्थ व्युत्पत्तिपूर्वक स्पष्ट किया है; जो इसप्रकार है - “स्व-पर का अविवेक होने पर जीव अध्यवसितिमात्र अध्यवसान है और वही बोधनमात्रत्व से बुद्धि है, व्यवसानमात्रत्व से व्यवसाय है, मननमात्रत्व से मति है, विज्ञप्तिमात्रत्व से विज्ञान है, चेतनमात्रत्व से चित्त है, चेतन के भवनमात्रत्व से भाव है, चेतन के परिणमनमात्रत्व से परिणाम है।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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