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________________ बंधाधिकार ( हरिगीत ) यदि जीव कर्मों से दुःखी मैं दुःखी करता काय से । यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ।। सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए । देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।। २६८IT धमाधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च । सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ।। २६९ ।। यदि जीव कर्मों से दुःखी मैं दुःखी करता वचन से । यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ।। यदि जीव कर्मों से दुःखी मैं दुःखी करता हृदय से । यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ।। यदि जीव कर्मों से दुःखी मैं दुःखी करता शस्त्र से । यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ।। यदि जीव कर्मों से सुखी तो मन-वचन से काय से । मैं सुखी करता अन्य को यह मान्यता अज्ञान है ।। ३७१ यदि जीव अपने कर्मों से दुःखी होते हैं तो मैं जीवों को काय से दुःखी करता हूँ - इसप्रकार की तेरी मति (विकल्पमयबुद्धि - मान्यता) पूर्णत: मिथ्या है। यदि जीव अपने कर्मों से दुःखी होते हैं तो मैं जीवों को वाणी से दुःखी करता हूँ - इसप्रकार की तेरी मति पूर्णत: मिथ्या है। यदि जीव अपने कर्मों से दुःखी होते हैं तो मैं जीवों को मन से दुःखी करता हूँ - इसप्रकार की तेरी मति पूर्णत: मिथ्या है। यदि जीव अपने कर्मों से दुःखी होते हैं तो मैं जीवों को शस्त्रों (हथियारों) से दुःखी करता हूँ - इसप्रकार की तेरी मति पूर्णत: मिथ्या है। यदि जीव अपने कर्मों से सुखी होते हैं तो मैं मन से, वचन से या काय से जीवों को सुखी करता हूँ- ऐसी बुद्धि भी मिथ्या है। उक्त गाथाओं में आचार्यदेव ने सबकुछ मिलाकर एक ही बात कही है कि यदि जीव अपने कर्मोदय से ही सुखी-दु:खी होते हैं तो फिर तेरी यह मान्यता कि मैंने मन, वचन और काय से या शस्त्रों से किसी को सुखी - दुःखी किया है। यह बात पूर्णतः असत्य ही है। इसप्रकार जिनसेनीय गाथाओं की चर्चा के उपरान्त आत्मख्याति के मूल प्रकरण पर आते हैं। जो बात विगत १७१वें कलश में कही गई है, अब उसी बात को इन गाथाओं में विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं। ध्यान रहे, विगत कलश में पर को निजरूप और निज को पररूप करने की बात कही गई है। वही बात इन गाथाओं में कर रहे हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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