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________________ ३२२ समयसार ___ “स्वभाव के ध्रुव होने से ज्ञानी तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावस्वरूप नित्य है और विभावभावों के उत्पाद-व्ययरूप होने से वेद्यवेदकभाव क्षणिक हैं। यहाँ कांक्षमाण (जिसकी वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो वेद्यो भावो विनश्यति; तस्मिन् विनष्टे वेदको भाव: किं वेदयते ? ___ यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; किं स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था। तांच विजानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ।।२१६।। (स्वागता) वेधवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेवी तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ।।१४७।। कांक्षा की जावे, उस) वेद्यभाव का वेदन करनेवाला वेदकभाव जबतक उत्पन्न होता है, तबतक कांक्षमाण वेद्यभाव नष्ट हो जाता है। उस वेद्यभाव के नष्ट हो जाने पर वेदकभाव किसका वेदन करे? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्यभाव के बाद होनेवाले अन्य वेद्यभाव का वेदन करता है तो यह बात भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेद्यभाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेदकभाव नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस अन्य वेद्यभाव का वेदन कौन करता है ? इसके उत्तर में यदि यह कहा जाये कि उस वेदकभाव के बाद होनेवाला अन्य वेदकभाव उसका वेदन करता है तो यह भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेदकभाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह दूसरा वेदकभाव किसका वेदन करता है ? इसप्रकार कांक्षमाण भाव के वेदन में अनवस्था दोष आता है। उस अनवस्था को जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता।" उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि यहाँ जो यह कहा गया है कि ज्ञानी के इच्छा नहीं, राग नहीं है, भोगों की आकांक्षा नहीं है; इसकारण भोग भोगते हुए भी उसे बंध नहीं होता; उसका आशय दर्शनमोह संबंधी इच्छा से है, तत्संबंधित राग से है, राग के प्रति होनेवाले राग से है, राग के प्रति होनेवाले एकत्व-ममत्व से है, राग के प्रति उपादेय बुद्धि से है, राग में सुख बुद्धि से है। इसीप्रकार बंध के संबंध में भी समझना चाहिए; क्योंकि चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के दर्शनमोह संबंधी बंध का ही अभाव होता है, चारित्रमोह संबंधी बंध का नहीं। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं। क्योंकिपल-पल प्रलय पावें वेद्य-वेदकभाव सब ।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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