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________________ निर्जराधिकार ३१७ सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है।।२१४।। अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्मम् । अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१०।। अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्मम् । अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२११।। अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यशनम् । अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१२।। अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम् । अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१३।। एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावांश्च नेच्छति ज्ञानी। ज्ञायकभावो नियतो निरालंबस्तु सर्वत्र ।।२१४।। अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पुण्यरूप धर्म को नहीं चाहता; इसलिए वह पुण्यरूप धर्म का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है। अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पापरूप अधर्म को नहीं चाहता; इसलिए वह पापरूप अधर्म का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है।। अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी भोजन को नहीं चाहता है। इसलिए वह भोजन का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है। ____ अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पेय को नहीं चाहता; इसलिए वह पेय का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है। इसीप्रकार और भी अनेकप्रकार के सभी भावों को ज्ञानी नहीं चाहता; क्योंकि वह तो सभी भावों से निरालम्ब एवं निश्चित ज्ञायकभाव ही है। ये सभी गाथायें लगभग एक-सी ही हैं। २१० से २१३ तक की गाथाओं में मात्र इतना ही अन्तर है कि २१०वीं गाथा की पहली पंक्ति में समागत धम्मं पद के स्थान २११वीं गाथा में अधम्म, २१२वीं गाथा में असणं और २१३वीं गाथा में पाणं हो गया है। इसीप्रकार २१०वीं गाथा की दूसरी पंक्ति में समागत धम्मस्स पद के स्थान पर २११वीं गाथा में अधम्मस्स, २१२वीं गाथा में असणस्स और २१३वीं गाथा में पाणस्स हो गया है। इन गाथाओं के बाद समागत २१४वीं गाथा में कहा गया है कि जिसप्रकार ज्ञानी आत्मा पुण्यपाप और खान-पान की वांछा नहीं रखने से इनका परिग्रही नहीं, ज्ञायक ही है; उसीप्रकार अन्य सभी प्रकार के भावों का भी इच्छुक नहीं होने से परिग्रही नहीं, ज्ञायक ही है। जिसप्रकार की एकरूपता उक्त गाथाओं में पाई जाती है; उसीप्रकार की एकरूपता आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति और आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति में भी पाई जाती है। यही कारण है कि हम यहाँ आत्मख्याति का अर्थ करते समय चारों गाथाओं का अर्थ पुनरुक्ति
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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