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________________ ३०२ समयसार है और यह सबसे बड़ा पाप दोनों के ही सदा एक-सा विद्यमान रहता है। इसलिए वे दोनों ही समानरूप से पापी हैं। यही बात इस कलश में कही गई है। कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत् - परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ।।२०१।। अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ।।२०२।। परमाणुमात्रमपि खलु रागादीनां तु विद्यते यस्य। नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि ।।२०१।। आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन् । कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन् ।।२०२।। अब आगामी गाथाओं में यह बताते हैं कि आत्मा और अनात्मा को नहीं जाननेवाला रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत) अणुमात्र भी रागादि का सद्भाव है जिस जीव के। वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को ।।२०१।। जो न जाने जीव को वे अजीव भी जानें नहीं। कैसे कहें सदृष्टि जीवाजीव जब जानें नहीं? ।।२०२।। जिन जीवों के परमाणुमात्र (लेशमात्र) भी रागादि वर्तते हैं, वे जीव समस्त आगम के पाठी होकर भी आत्मा को नहीं जानते। आत्मा को नहीं जाननेवाले वे लोग अनात्मा को भी नहीं जानते । इसप्रकार जो जीव और अजीव (आत्मा और अनात्मा) दोनों को ही नहीं जानते; वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं ? यहाँ ‘परमाणुमात्र राग' और 'सर्व आगमधर' - ये दोनों पद विशेष स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखते हैं; क्योंकि एक बात तो यह है कि सम्पूर्ण आगम को जाननेवाला आत्मा को नहीं जाने – यह कैसे हो सकता है ? द्वादशांग के पाठी तो सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञानी ही होते हैं। दूसरे राग का अंश तो दशवें गुणस्थान तक रहता है; तो क्या दशवें गुणस्थान तक भी आत्मज्ञान नहीं होता ? आत्मज्ञान तो चतुर्थगुणस्थान में ही हो जाता है। ऐसी स्थिति में उक्त पदों का अर्थ कुछ विशिष्ट होना चाहिए; तदर्थ स्पष्टीकरण अत्यन्त आवश्यक है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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