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________________ २९५ निर्जराधिकार यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुपभुंजानोऽपि अमोघविद्यासामर्थ्येन निरुद्धतच्छक्तित्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागादिभावसद्भावेन बंधकारणं पुद्गलकर्मोदयमुपभुंजानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वान्न बध्यते ज्ञानी। यथा कश्चित्पुरुषो मैरेयं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभाव: सन् मैरेयं पिबन्नपि तीव्रारतिभावसामर्थ्यान्न माद्यति, तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः सन् विषयानुपभुंजानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी ।।१९५-१९६ ।। (रथोद्धता) नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः॥१३५।। उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - "जिसप्रकार कोई विषवैद्य दूसरों के मरण के कारणभूत विष को भोगता (खाता) हुआ भी अमोघ (रामबाण) विद्या की सामर्थ्य से विष की शक्ति रुक गई होने से मरता नहीं है; उसीप्रकार अज्ञानियों को रागादिभावों के सद्भाव होने से बंध का कारण जो पुद्गल कर्म का उदय उसको भोगता हुआ भी ज्ञानी अमोघ ज्ञान की सामर्थ्य द्वारा रागादिभावों का अभाव होने से कर्मोदय की शक्ति रुक गई होने से बंध को प्राप्त नहीं होता। जिसप्रकार मदिरा के प्रति तीव्र अरतिभाव से प्रवर्तित कोई पुरुष मदिरा पीने पर भी उसके प्रति अरतिभाव की सामर्थ्य के कारण मतवाला (मदोन्मत्त) नहीं होता है; उसीप्रकार रागादिभावों के अभाव से सर्वद्रव्यों के उपभोग के प्रति तीव्र वैराग्यभाव से ज्ञानी विषयों को भोगता हआ भी तीव्र वैराग्यभाव की सामर्थ्य के कारण बंध को प्राप्त नहीं होता है।" प्रश्न - मूल गाथाओं में जो उदाहरण दिये गये हैं, उनमें साफ-साफ कहा गया है कि जिसप्रकार विष को खाते हुए भी वैद्य मरता नहीं है और अरतिभाव से मद्य (शराब) पीनेवाले को नशा नहीं चढ़ता; किन्तु यह बात एकदम अटपटी लगती है। अरे भाई ! जहर खाने पर वैद्य कैसे बच सकता है तथा अरतिभाव के कारण शराब का नशा भी कैसे नहीं होगा ? क्या जहर और शराब भी ऐसा पक्षपात कर सकते हैं कि वे किसी पर तो असर दिखायें और किसी पर नहीं ? उत्तर - यह बात आचार्य अमृतचन्द्र के ध्यान में भी आई थी। यही कारण है कि उन्होंने आत्मख्याति टीका में स्पष्ट किया है कि अमोघ विद्या की सामर्थ्य के कारण विषवैद्य नहीं मरता और शराब पीनेवाले के अरतिभाव के कारण नशा नहीं चढ़ता। इसप्रकार इन गाथाओं में सोदाहरण यह बात सिद्ध की गई है कि ज्ञान और वैराग्य की सामर्थ्य के कारण भोगों को भोगते हुए भी ज्ञानियों को कर्मबंध नहीं होता। अब आत्मख्याति में इसी भाव को पुष्ट करनेवाला एवं आगामी गाथा की सूचना देनेवाला कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) बँधे न ज्ञानी कर्म से, बल विराग अर ज्ञान । यद्यपि सेवें विषय को, तदपि असेवक जान ।।१३५॥
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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