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________________ संवराधिकार २८५ केन क्रमेण संवरो भवतीति चेत् - तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरिसीहिं। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य॥१९०।। को आत्मा परोक्ष ही होता है; किन्तु बाद में परमसमाधि के काल में प्रत्यक्ष होता है। इसीप्रकार वर्तमानकाल में भी समझना चाहिए। इसप्रकार ‘परोक्ष आत्मा का ध्यान कैसे करें' - इस शंका के समाधान के रूप में ये दो गाथायें लिखी गई हैं।" उक्त सम्पूर्ण कथन पर गहरी दृष्टि डालने पर शंका का समाधान सहज ही हो जाता है कि अनुभूति में आत्मा प्रत्यक्ष है या परोक्ष ? अथवा यों कहिए कि अनुभूति में आत्मा को प्रत्यक्ष या परोक्ष कहने की अपेक्षायें भली-भाँति ख्याल में आ जाती हैं। देखो, यहाँ आचार्यदेव प्रेरणा दे रहे हैं कि भगवान के समवशरण में भी तो आत्मा की बात सुनने को ही मिलती है; यदि तुम्हें यहाँ भी वही आत्मा की बात उसी रूप में सुनने को मिल रही है तो फिर तुम आत्मकल्याण में प्रवृत्त क्यों नहीं होते ? 'यह तो पंचमकाल है, भगवान का सत्समागम नहीं है; ऐसी स्थिति में धर्म कैसे किया जा सकता है' - पुरुषार्थहीनता की ऐसी बातें करने से क्या लाभ है ? अरे भाई ! आत्मा का अनुभव तो तुझे ही करना है; ज्ञानीजन तो मात्र समझा ही सकते हैं।' अरहंत भगवान भी समवशरण में दिव्यध्वनि के माध्यम से मात्र समझाते ही हैं। समवशरण में भी देशना ही प्राप्त होती है और देशना तो यहाँ भी मिल रही है, अभी भी मिल रही है। हमें उसका लाभ लेकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिए। ध्यान रहे, यहाँ ज्ञानी की वाणी की तुलना अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि से करके भगवान की महिमा घटाई नहीं जा रही है; अपितु यह कहा जा रहा है कि ज्ञानियों के वचन भी तो उसी दिव्यध्वनि का अनुसरण करते हैं। यद्यपि दुर्भाग्य से अभी हमें अरहंत भगवान का सत्समागम प्राप्त नहीं है; तथापि हमारा इतना सद्भाग्योदय अभी भी है कि हमें उनकी वाणी प्राप्त है, जिनवाणी प्राप्त है; उसके प्रतिपादक प्रवक्ता भी उपलब्ध हैं। अत: हमें उनका लाभ लेकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना ही चाहिए। इसप्रकार आचार्य जयसेन की तात्पर्यवत्ति में विशेषरूप से समागत इन दो गाथाओं में यह बताया गया है कि आत्मा पहले गुरूपदेश से सुनकर या परमागम में पढ़कर परोक्षरूप से जाना जाता है और फिर अनुभूति में प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है। यद्यपि यह अनुभव केवलज्ञान के समान प्रत्यक्ष तो नहीं है। तथापि स्वानुभवप्रत्यक्ष तो है ही। संवर की विधि बताने के बाद अब आगामी गाथाओं में संवर होने का क्रम बताते हैं। संवर का क्रम बतानेवाली गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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