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________________ २४९ पुण्यपापाधिकार अत्यन्त सामर्थ्य युक्त ज्ञानज्योति प्रगट हुई। इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रांतम् । इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपक: तृतीयोऽङ्कः। यह कलश पुण्यपापाधिकार का अन्तिम कलश है। इसलिए इसमें अधिकार के अन्त में होनेवाले मंगलाचरण के रूप में उसी ज्ञानज्योति का स्मरण किया गया है, जिसका स्मरण आरंभ से ही मंगलाचरण के रूप में करते आ रहे हैं। इस कलश में समागत सभी विशेषण ज्ञानज्योति की महिमा बढ़ानेवाले हैं। इसप्रकार यहाँ पुण्यपापाधिकार समाप्त हो रहा है। अत: आचार्य अमृतचन्द्र अधिकार की समाप्ति का सूचक वाक्य लिखते हैं, जिसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है - “पुण्य-पापरूप से दो पात्रों के रूप में नाचनेवाला कर्म अब एक पात्ररूप होकर रंगभूमि से बाहर निकल गया।" यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि इस ग्रन्थराज को यहाँ नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस पुण्यपापाधिकार में कर्मरूपी एक पात्र पुण्य और पाप - ऐसे दो वेष बनाकर रंगभूमि में प्रविष्ट हुआ था; किन्तु जब वह सम्यग्ज्ञान में यथार्थ भासित हो गया तो वह नकली वेष त्यागकर अपने असली एक रूप में आ गया और रंगभूमि से बाहर निकल गया। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में पुण्य-पाप का प्ररूपक तीसरा अंक समाप्त हुआ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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