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________________ २४० समयसार अथ परमार्थमोक्षहेतोरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति - मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवटुंति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।।१५६।। मुक्त्वा निश्चयार्थं व्यवहारेण विद्वांसः प्रवर्तते। परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो विहितः ।।१५६।। यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्षहेतुः स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात्, परमार्थमोक्षहेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् ।।१५६।। (हरिगीत) विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में। पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के।।१५६।। विद्वान लोग निश्चयनय के विषयभूत निज भगवान आत्मारूप परम-अर्थ को छोड़कर व्यवहार में प्रवर्तते हैं; किन्तु कर्मों का नाश तो निज भगवान आत्मारूप परम-अर्थ का आश्रय लेनेवाले यतीश्वरों (मुनिराजों) के ही कहा गया है। आचार्य अमृतचन्द्र उक्त गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "कुछ लोग मोक्ष के पारमार्थिक हेतु से भिन्न जो व्रत, तपादि शुभकर्म हैं; उन्हें मोक्ष का हेतु मानते हैं। यहाँ उन सभी का निषेध किया गया है; क्योंकि वे व्रतादि अन्य द्रव्य के स्वभाववाले पुद्गलरूप हैं; इसकारण उनके स्वभाव से ज्ञान का भवन (होना) नहीं बनता। जो पारमार्थिक मोक्षहेतु है, वही एकद्रव्यस्वभाववाला (जीवस्वभाववाला) होने से उसके स्वभाव द्वारा ज्ञान का भवन (होना) बनता है।" एकद्रव्यस्वभाव क्या है और अन्यद्रव्यस्वभाव क्या है ? यह समझना बहुत जरूरी है; क्योंकि इनकी चर्चा आगामी कलशों में भी आनेवाली है। जिस द्रव्य में जो कार्य होना है, उस कार्य का कारण भी उसी द्रव्य में विद्यमान होना एकद्रव्यस्वभाव है। एकद्रव्यस्वभाववाला कारण ही सच्चा कारण है। मोक्ष भी आत्मा को होना है और आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र गुण का परिणमन भी आत्मा में होना है और आत्मा के सम्मुख होकर होना है; इसकारण मुक्ति का कारण आत्मा और आत्मसम्मुख दर्शन, ज्ञान, चारित्र के परिणमन को कहना एकद्रव्यस्वभाववाला हेतु हुआ। शुभाशुभभाव और शुभाशुभक्रिया पुद्गलस्वभावी है; अत: वे आत्मा को मोक्ष की प्राप्तिरूप कर्म के लिए अन्यद्रव्यस्वभावी हैं; अत: वे शुभाशुभभाव व शुभाशुभक्रिया मोक्ष के हेतु नहीं हो सकते। इस गाथा की टीका लिखने के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र इसी भाव के पोषक दो कलश तथा आगामी गाथा का सूचक एक कलश - इसप्रकार तीन कलश लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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