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________________ पुण्यपापाधिकार २२७ (मन्दाक्रान्ता) एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ।।१०१।। यह पुण्यपापाधिकार के मंगलाचरण का कलश है। इसमें उस सम्यग्ज्ञानज्योति को, ज्ञानसुधाकर को स्मरण किया गया है, जिसने पुण्य-पाप संबंधी अज्ञान का नाश किया है। अज्ञान के कारण पुण्य को भला और पाप को बुरा जाना जाता था; पर इस ज्ञानज्योति के उदय से, इस ज्ञानसुधाकर के उदय से वह अज्ञान नष्ट हो गया और यह सद्ज्ञान प्रगट हो गया कि मुक्तिमार्ग में पाप के समान ही पुण्य भी हेय ही है। अब आगामी कलश में इस बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) दोनों जन्मे एक साथ शूद्रा के घर में। एक पला बामन के घर दूजा निज घर में ।। एक छुए ना मद्य ब्राह्मणत्वाभिमान से। दूजा डूबा रहे उसी में शूद्रभाव से ।। जातिभेद के भ्रम से ही यह अन्तर आया। इस कारण अज्ञानी ने पहिचान न पाया।। पुण्य-पाप भी कर्म जाति के जुड़वा भाई। दोनों ही हैं हेय मुक्ति मारग में भाई॥१०१।। एक तो ब्राह्मणत्व के अभिमान से दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे छूता तक नहीं और दूसरा 'मैं स्वयं शूद्र हूँ' - ऐसा मानकर नित्य मदिरा से स्नान करता है, उसी में डूबा रहता है, उसे पवित्र मानता है। यद्यपि वे दोनों ही शूद्रा के पेट से एकसाथ ही उत्पन्न हुए हैं, इसलिए दोनों ही साक्षात् शूद्र हैं; तथापि वे जातिभेद के भ्रम से ऐसा आचरण करते हैं। उक्त छन्द में शूद्र के जुड़वा बेटों के उदाहरण के माध्यम से पुण्य और पाप की एकता को समझाया गया है। एक शूद्र महिला के पेट से दो बालक एकसाथ (जुड़वा) पैदा हुए। उसने अपने एक बालक को ब्राह्मणी को दे दिया। ब्राह्मणी ने उसे अपने पुत्र के समान ही पाला-पोसा। ब्राह्मणी के यहाँ पलनेवाले बालक को यह पता ही न था कि वह शूद्र का बेटा है। वह तो स्वयं को ब्राह्मणपुत्र मानकर ब्राह्मण जैसा पवित्र आचरण पालता था, शराब को हाथ भी नहीं लगाता था। __ दूसरा बालक शूद्रा के यहाँ ही बड़ा हुआ। चूँकि शूद्रों के यहाँ शराब सहजभाव से पी जाती है। इसकारण वह प्रतिदिन शराब पीता था। आचार्यदेव कहते हैं कि यद्यपि वे दोनों सगे जुड़वा भाई हैं; तथापि जातिभेद के भ्रम से उनके आचरण में यह भेद दिखाई देता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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