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________________ कर्ताकर्माधिकार २२५ व्यवहारनय का उपचरित कथन ही समझना चाहिए। 'वस्तु की स्थिति उक्त कथनानुसार अत्यन्त स्पष्ट होने पर भी अज्ञानियों के परकर्तृत्वसंबंधी मोह न जाने क्यों नाचता है ?' - इसप्रकार का आश्चर्य इस ९८ वें कलश में व्यक्त किया गया है। इसके उपरान्त आचार्य कहते हैं कि मोह नाचता है तो नाचे; हमें उससे क्या है ? इसप्रकार आगामी कलश में आचार्यदेव ज्ञानज्योति का स्मरण करते हुए कर्ताकर्माधिकार का समापन करते हैं। इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रांतौ । इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसार-व्याख्यायामात्मख्यातौ कर्तृकर्मप्ररूपकः द्वितीयोऽङ्कः। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सवैया इकतीसा ) जगमग जगमग जली ज्ञानज्योति जब, अति गंभीर चित् शक्तियों के भार से ।। अद्भुत अनूपम अचल अभेद ज्योति, ___ व्यक्त धीर-वीर निर्मल आर-पार से।। तब कर्म कर्म अर कर्ता कर्ता न रहा। ज्ञान ज्ञानरूप हुआ आनन्द अपार से ।। और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ, ___ ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से ।।९९।। अचल, व्यक्त और चित्शक्तियों के समूह के भार से अत्यन्त गंभीर यह ज्ञानज्योति अंतरंग में उग्रता से इसप्रकार जाज्वल्यमान हुई कि जो आत्मा अज्ञान-अवस्था में कर्ता होता था, वह अब कर्ता नहीं होता और अज्ञान के निमित्त से जो कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्मरूप होता था, अब वह कर्मरूप नहीं होता। इसप्रकार ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा पुद्गल पुद्गलद्रव्य ही रहता है। इसप्रकार यहाँ द्रव्य-गुण-पर्यायमय ज्ञानज्योति का स्मरण किया गया है और यह कहा गया है कि जब यह ज्ञानज्योति उच्चता से, उग्रता से जाज्वल्यमान होती है, तब ज्ञान ज्ञानरूप हो जाता है, वह कर्ता नहीं बनता और पुद्गल पुद्गलरूप रह जाता है, वह कर्म नहीं बनता। इसप्रकार कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का अभाव हो जाता है। जिसप्रकार प्रकाश के होने से सभी पदार्थ पृथक-पृथक भासित होने लगते हैं; उसीप्रकार ज्ञानज्योति के प्रकाशित होने से ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज्ञातारूप भासित होने लगा और जड़ पुद्गल पुद्गलरूप भासित होने लगा; सहज ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव प्रस्फुटित हो गया। - यही कहा गया है इस ९९वें कलश में। इसप्रकार यहाँ कर्ताकर्माधिकार समाप्त होता है। इसका समापन करते हए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जो अन्तिम वाक्य लिखते हैं, वह इसप्रकार है - "इसप्रकार जीव और अजीव कर्ता-कर्म का वेष त्यागकर बाहर निकल गये।" इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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