SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ समयसार और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का। सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का॥६५॥ इसप्रकार जीव की स्वभावभूत परिणमनशक्ति निर्विघ्न सिद्ध होने पर जीव अपने जिस भाव को करता है, उस भाव का कर्ता होता है। ६५वें कलश में यह कहा गया है कि जीव अपने स्वभावभूत परिणामशक्ति के कारण जिसजिस भावरूप परिणमित होता है, वह उन-उन भावों का कर्ता होता है। यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः । ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।।१२६।। अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि । ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ॥१२॥ एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोऽपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत । स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात् । अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यंतप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात् । किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह - अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यंतप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय अब आगामी गाथाओं में भी उसी भाव को स्पष्ट कर रहे हैं। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।१२६।। अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का। बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का ।।१२७।। आत्मा जिस भाव को करता है, वह उस भावरूप कर्म का कर्ता होता है। अज्ञानी के वे भाव अज्ञानमय होते हैं और ज्ञानी के ज्ञानमय। अज्ञानी के भाव अज्ञानमय होने से अज्ञानी कर्मों को करता है और ज्ञानी के भाव ज्ञानमय होने से ज्ञानी कर्मों को नहीं करता। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - ___ “इसप्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाला है और अपने जिस भाव को करता है, कर्मपने को प्राप्त उस भाव का कर्ता होता है। तात्पर्य यह है कि वह भाव आत्मा का कर्म है और आत्मा उस भाव का कर्ता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy