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________________ १८० समयसार भोक्तत्व रूप परिणमित होता है; तब वह उनका कर्ता-भोक्ता होता है, किन्तु पर का कर्ता-भोक्ता तो वह तब भी नहीं होता। इसप्रकार अज्ञानी अपने शुभाशुभभाव रूप अज्ञान परिणमन का और ज्ञानी उन्हें जाननेरूप अपने ज्ञान परिणमन का कर्ता होता है, किन्तु पर का कर्ता न तो ज्ञानी होता है और न अज्ञानी ही। पर का कर्ता तो वही परद्रव्य होता है कि जिसका वह परिणमन है। एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् । न च परभाव: केनापि कर्तुं पार्येत - जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे । सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।। दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि। तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ।।१०४।। यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोऽन्यस्मिंस्तुन संक्रामति द्रव्ये। सोऽन्यदसंक्रांतः कथं तत्परिणामयति द्रव्यम् ।।१०३॥ द्रव्यगुणस्य चात्मा न करोति पुद्गलमये कर्मणि। तदुभयमकुर्वंस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता ।।१०४।। इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिंश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः, स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तेत न पुनः द्रव्यांतरं गुणांतरं वा संक्रामेत । द्रव्यांतरं गुणांतरं वाऽसंक्रामश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् ? अतः परभाव: केनापि न कर्तुं पार्येत । १०१ व १०२वीं गाथाओं में यह कहा गया है कि ज्ञानी अपने ज्ञान परिणमन का कर्ता है और अज्ञानी अपने अज्ञान परिणमन का; पर का कर्ता न तो ज्ञानी है और न अज्ञानी। अब १०३ व १०४वीं गाथा में उसी बात को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के भाव को करने में समर्थ नहीं है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में । तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।।१०३।। कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में। जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें ?।।१०४।। जो वस्तु जिस द्रव्य में और जिस गुण में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य में या अन्य गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती। अन्यरूप से संक्रमण को प्राप्त न होती हुई वह वस्तु अन्य वस्तु को कैसे परिणमन करा सकती है ? आत्मा पुद्गलमय कर्म के द्रव्य व गुण को नहीं करता। उन दोनों को न करता हुआ वह आत्मा उनका कर्ता कैसे हो सकता है ? उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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