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________________ कर्ताकर्माधिकार माननेवाले द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि हैं - यह सिद्धान्त है; क्योंकि एक द्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों के परिणाम किये गये प्रतिभासित नहीं होते। यथा किल कुलाल: कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वव्यापारानुरूपं मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति । तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्मपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु, मा पुनः पुद्गलपरिणामकरणाहकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूप पुद्गलस्य परिणाम पुद्गलादव्यतिरिक्त पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु ।।८।। ___ यद्यपि कुम्हार घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल अपने परिणाम (इच्छारूप और हस्तादि की क्रियारूप व्यापार) को करता हुआ प्रतिभासित होता है; क्योंकि वह परिणाम कुम्हार से अभिन्न है और प्रत्येक द्रव्य अपने परिणाम को करता ही है; तथापि घड़ा बनाने के अहंकार से भरा हुआ होने पर भी वह कुम्हार अपने व्यापार (परिणाम) के अनुरूप मिट्टी के घटपरिणाम को करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; क्योंकि वह घटरूप परिणाम मिट्टी से अभिन्न है और मिट्टी द्वारा ही किया जाता है। इसीप्रकार आत्मा भी अज्ञान के कारण पुद्गलकर्मरूप परिणाम के अनुकूल अपने परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित हो; क्योंकि वह परिणाम आत्मा से अभिन्न है और प्रत्येक द्रव्य अपने परिणाम को करता है, किन्तु पुद्गल के परिणाम को करने के अहंकार से भरा हुआ प्रतिभासित न हो; क्योंकि वह पुद्गल का परिणाम पुद्गल से अभिन्न है और पुद्गल के द्वारा किया जाता है।" इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं - "जिसप्रकार कुम्हार उपादानरूप से स्वकीयपरिणाम करता है; यदि उसीप्रकार उपादानरूप से ही घट को भी करे; तो उसे रूपी, अचेतन और घटरूप होना होगा अथवा घट को चेतन और कुम्हार होना होगा। इसीप्रकार यदि जीव भी उपादानरूप से पुद्गलकर्म को करे तो जीव को अचेतन-पुद्गल अथवा पुद्गल कर्म को चेतन-जीव होना होगा।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि यदि जीव को निश्चयनय से पुद्गलकर्मों का कर्ता मानें तो या तो जीव को पुद्गल मानना होगा या फिर पुद्गलकर्मों को जीव मानना होगा; क्योंकि निश्चय से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता नहीं होता। अत: यह सुनिश्चित ही है कि जीव अपने भावों को भी करता है और पौद्गलिक कर्मों को भी करता है - ऐसा माननेवाले द्विक्रियावादी हैं; इसकारण वे मिथ्यादृष्टि भी हैं। ८६वीं गाथा के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में एक गाथा प्राप्त होती है; जो आत्मख्याति
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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