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________________ १५३ कर्ताकर्माधिकार लोगों का अनादि से रूढ़ व्यवहार है। तथांताप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसंभवानुकूलं परिणामं कुर्वाण: पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिंभाव्यभावकभावेनानुभवंश्च जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोऽस्ति तावद्व्यवहारः। इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना, परिणामो -ऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नः । ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति । क्रियाक!रव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्चततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजंत्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमत: स्यात् ।।८४-८५॥ इसीप्रकार यद्यपि अन्तर में व्याप्य-व्यापकभाव से पुद्गलद्रव्य ही पौद्गलिक कर्मों को करता है और भाव्य-भावकभाव से पुद्गलद्रव्य ही पौद्गलिक कर्मों को भोगता है; तथापि बाह्य में व्याप्य-व्यापकभाव से अज्ञान के कारण पुद्गलकर्म के होने में अनुकूल अपने रागादि परिणामों को करता हुआ जीव पुद्गलकर्म को करता है और पुद्गलकर्म के विपाक से उत्पन्न हई विषयों की निकटता से उत्पन्न अपनी सुख-दुःखरूप परिणति को भाव्य-भावकभाव के द्वारा अनुभव करता हुआ जीव पुद्गलकर्म को भोगता है। इसप्रकार अज्ञानियों का अनादि संसार से प्रसिद्ध व्यवहार है। इस जगत में जो भी क्रिया है, वह परिणामस्वरूप होने से परिणाम से भिन्न नहीं है, परिणाम ही है; और परिणाम व परिणामी एक होने से, परिणाम भी परिणामी से भिन्न नहीं है। अत: यह सिद्ध ही है कि जो कुछ भी क्रिया है, वह क्रियावान द्रव्य से भिन्न नहीं है। इसप्रकार वस्तुस्वरूप से क्रिया और कर्ता की अभिन्नता सदा ही प्रगट होने से जिसप्रकार जीव व्याप्य-व्यापकभाव से अपने परिणामों को करता है और भाव्य-भावकभाव से उन्हें ही भोगता है; उसप्रकार यदि जीव व्याप्य-व्यापकभाव से पुदगलकर्म को भी करे और भाव्यभावकभाव से पुद्गलकर्म को भी भोगे तो उस जीव को अपनी और पर की - दोनों की क्रियाओं से अभिन्न मानना होगा। ऐसी स्थिति में स्व-पर का विभाग ही अस्त हो जाने से अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्मा का निजरूप अनुभव करता हुआ जीव मिथ्यादृष्टि हो जायेगा, इसकारण सर्वज्ञ के मत से भी बाहर हो जायेगा।" देखो, यहाँ यह कहा जा रहा है कि जिसप्रकार कुम्हार को घड़े का कर्ता और भोक्ता कहना वास्तविकता न होकर अनादि का रूढ़ व्यवहार है; उसीप्रकार आत्मा को पौद्गलिक कर्मों का
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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