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________________ १४३ कर्ताकर्माधिकार का कर्ता-कर्म भाव होता है कि नहीं?" गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ।।७६।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधम् ।।७७।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनंतम् ।।७८।। नापि परिणमति न गृह्णात्यत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ।।७९।। यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वत्र्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमंतापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि (हरिगीत) परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७६।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें।।७७।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें।।७८।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। इस ही तरह पुद्गल दरव निजभाव से ही परिणमें ।।७९।। ज्ञानी अनेकप्रकार के पुद्गल कर्म को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्यायरूप परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। ___ ज्ञानी अनेकप्रकार के अपने परिणामों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्यायरूप परिणमित नहीं होता; उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। ज्ञानी पुद्गल कर्म के अनन्तफल को जानते हुए भी परमार्थ से परद्रव्य की पर्यायरूप परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। इसीप्रकार पुद्गल द्रव्य भी परद्रव्य की पर्यायरूप परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि वह भी अपने ही भावों से परिणमित होता है। आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षणवाले पुद्गल के परिणामरूप कर्म (कार्य) में पुद्गल द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर; उसे ग्रहण
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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