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________________ कर्ताकर्माधिकार १४१ आत्मा पर को और रागादि भावों को जानता है और यह जानना उसका कर्म है एवं उस जाननेरूप कर्म का वह कर्ता है। (शार्दूलविक्रीडित ) व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिंदंस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसित: कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४९।। मूलत: प्रश्न तो यह था कि यह आत्मा ज्ञानी हो गया - यह कैसे पहिचाना जाये ? इसके उत्तर में ७५वीं गाथा में कहा गया था कि कर्म और नोकर्म के परिणाम को जो करता नहीं है, मात्र जानता है, वह आत्मा ज्ञानी है। इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में एक गाथा आती है, जो आचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मख्याति में नहीं है, उसमें भी ज्ञानी को ही परिभाषित किया गया है। वह गाथा मूलत: इसप्रकार है - कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण। धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ।। (हरिगीत) रागादि का कर्ता कहा यह आत्मा व्यवहार से। पर नियत नय से अकर्ता जो जानता वह ज्ञानि है।। किसी एक नय से अर्थात् व्यवहारनय से यह आत्मा पुण्यरूप धर्म भावों अर्थात् शुभभावरूप रागादि भावों का कर्ता कहा जाता है; परन्तु निश्चयनय से इन भावों का कर्ता नहीं है। जो व्यक्ति यह जानता है, वह ज्ञानी है। इस गाथा का भाव आचार्य जयसेन स्वयं इसप्रकार करते हैं - “यह आत्मा पुण्य-पापादि विकारीभावों का कर्ता भी है और अकर्ता भी है। यह सब नयविभाग से है; क्योंकि निश्चयनय से अकर्ता है और व्यवहारनय से कर्ता है। इसप्रकार ख्याति-लाभ-पूजादि समस्त रागादि विकल्पमय औपाधिक परिणामों से रहित समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी होता है।" इसी भाव को आगामी कलश में भी स्पष्ट किया जा रहा है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सवैया इकतीसा ) तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य-व्यापक बने, बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में। कर्ता-कर्म भाव का बनना असंभव है, व्याप्य-व्यापकभाव संबंध के अभाव में ।। इस भाँति प्रबल विवेक दिनकर से ही, भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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