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________________ समयसार इसलिए अब मैं समस्त परद्रव्यों में प्रवृत्ति से निवृत्ति के द्वारा इसी आत्मा में - अपने ही आत्मा में, आत्मस्वभाव में ही निश्चल रहता हुआ, समस्त परद्रव्यों के निमित्त से विशेषरूप भावानखिलानेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त इव झगित्येवोद्वांतसमस्तविकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मानमालंबमानो विज्ञानघनभूत: खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्तते ।।७३॥ कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत् - जीवणिबद्धा एदे अध्रुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ।।७४।। जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च । दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः ।।७४।। चेतन में होती हई चंचल कल्लोलों के निरोध से इसको (आत्मा को) ही अनुभव करता हुआ, अपने ही अज्ञान से आत्मा में उत्पन्न सभी क्रोधादिभावों का क्षय करता हूँ। इसप्रकार अपने आत्मा (मन) में निश्चय करके; जिसने बहुत समय से पकड़े हुए जहाज को छोड़ दिया है - ऐसे समुद्र के भँवर की भाँति; जिसने सर्वविकल्पों का शीघ्र वमन कर दिया है - ऐसे निर्विकल्प, अचलित, अमल आत्मा का अवलम्बन करता हुआ, विज्ञानघन होता हुआ यह आत्मा आस्रवों से निवृत्त होता है।" गाथा में जो 'अहं' शब्द है, उसका अर्थ टीका में - मैं यह प्रत्यक्ष, अखण्ड, अनन्त, चिन्मात्रज्योति आत्मा किया गया है। तात्पर्य यह है कि 'मैं' शब्द से वाच्य जो अपना आत्मा है; वह प्रत्यक्षानुभूति का विषय है, अनन्त गुणमय है, अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है, चिन्मात्र है अर्थात् ज्ञान-दर्शनमय है और ज्योतिस्वरूप है। 'अहं' शब्द का अर्थ करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं कि - 'निश्चयनय से स्वसंवेदनज्ञान से प्रत्यक्ष होनेवाला मैं शुद्धचिन्मात्रज्योतिस्वरूप हूँ।' इसप्रकार इस गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि जब यह आत्मा अपने एक, शुद्ध, निर्मम और ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण आत्मस्वभाव में स्थित होता है, लीन होता है, तो आस्रवभावों से सहज ही निवृत्त हो जाता है। आस्रवों से निवत्ति की यही विधि है। आस्रवों से निवृत्ति की विधि स्पष्ट हो जाने के बाद अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मज्ञान होने और आस्रवों की निवृत्ति का एक काल कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर ७४वीं गाथा में समाहित है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं। दुःखरूप दुःखफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें।।७४।। ये आस्रवभाव जीव के साथ निबद्ध हैं, अध्रव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं और
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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