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________________ कर्ताकर्माधिकार १३१ कदास्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तेर्निवृत्तिरिति चेत् - जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से ।।७१।। यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव। ज्ञातं भवति विशेषांतरं तु तदा न बन्धस्तस्य ।।७१।। इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः । तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा, क्रोधादेभवनं क्रोधादिः। अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्न क्रोधादेरपि भवन, यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि, यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं, यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवंतो विभाव्यते न तथा ज्ञानमपि । इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वम् । इत्येवमात्मात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिवर्तते, तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबन्धोऽपि निवर्तते । तथा सति ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिध्येत् ।।७१॥ यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ७१वीं गाथा की उत्थानिका इसप्रकार देते हैं - यदि कोई कहे कि कर्ताकर्म की प्रवृत्ति की निवृत्ति कब होती है तो कहते हैं कि - (हरिगीत ) आतमा अर आस्रवों में भेद जाने जीव जब । जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब ।।७।। जब यह जीव आत्मा और आस्रवों का अन्तर और भेद जानता है, तब उसे बंध नहीं होता। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "इस लोक में वस्तु अपने स्वभावमात्र ही होती है और स्व का भवन (होना-परिणमना) ही स्वभाव है। इससे यह निश्चय हआ कि ज्ञान का होना-परिणमना आत्मा है और क्रोधादि का होना-परिणमना क्रोधादि है। ज्ञान का होना-परिणमना क्रोधादि का होना-परिणमना नहीं है; क्योंकि ज्ञान के होते (परिणमन के) समय जिसप्रकार ज्ञान होता हुआ मालूम पड़ता है, उसप्रकार क्रोधादि होते मालूम नहीं पड़ते। इसीप्रकार जो क्रोधादि का होना (परिणमना) है, वह ज्ञान का होना (परिणमना) नहीं है; क्योंकि क्रोधादि के होते समय जिसप्रकार क्रोधादि होते हुए मालूम पड़ते हैं, उसप्रकार ज्ञान होता हुआ मालूम नहीं पड़ता। इसप्रकार आत्मा और क्रोधादि का निश्चय से एक वस्तुत्व नहीं है। तात्पर्य यह है कि आत्मा और क्रोधादि एक वस्तु नहीं है। इसप्रकार आत्मा और आस्रवों का विशेष अन्तर देखने से जब यह आत्मा उनमें भेद (भिन्नता) जानता है, तब इस आत्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति अनादि होने पर भी निवृत्त होती है। उसकी निवृत्ति होने पर अज्ञान के निमित्त से होता हुआ पौद्गलिक द्रव्यकर्म का बंध भी निवृत्त होता है। ऐसा होने पर ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध सिद्ध होता है।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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