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________________ कर्ताकर्माधिकार १२९ जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोह्र पि। अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ।।६९।। कोहादिसु वटुंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदी। जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं।।७।। यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वात्मास्रवयोर्द्वयोरपि। अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः ।।६९।। क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मण: संचयो भवति। जीवस्यैवं बंधो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः ।।७।। यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसंबंधयोरात्मज्ञानयोरविशेषाभेदमपश्यन्नविशंकमात्मतया ज्ञाने वर्तते तत्र वर्तमानश्च ज्ञानक्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति, तथा संयोगसिद्धसंबंधयोरप्यात्मक्रोधाद्यास्रवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावद्भेदं न पश्यति तावदशंकमात्मतया ___ जीवाजीवाधिकार के मंगलाचरण में इसी ज्ञानज्योति को धीर और उदात्त कहा गया था और यहाँ अत्यन्त धीर और परम-उदात्त कहा जा रहा है। वहाँ जीवाजीवाधिकार होने से जीव और अजीव में एकत्व संबंधी अज्ञान का नाश करनेवाली ज्ञानज्योति को स्मरण किया गया था। यहाँ कर्ताकर्म अधिकार होने से जीव और अजीव के परस्पर कर्ता-कर्म भाव संबंधी अज्ञान का नाश करती हुई ज्ञानज्योति को याद किया जा रहा है। अब मूल गाथायें आरंभ होती हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) आतमा अर आस्रवों में भेद जब जाने नहीं। हैं अज्ञ तबतक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें ।।६९।। क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें। हो कर्मबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें।।७०।। जबतक यह जीव आत्मा और आस्रवों - इन दोनों के भेद और अन्तर को नहीं जानता है, तबतक अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादि आस्रवों में प्रवर्तता है। क्रोधादि में प्रवर्तमान उस जीव के कर्म का संचय होता है। जीव के कर्मों का बंध वास्तव में इसप्रकार होता है - ऐसा सर्वदर्शी भगवानों ने कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यह आत्मा तादात्म्य संबंधवाले आत्मा और ज्ञान में विशेष अन्तर न होने से उनमें परस्पर भिन्नता न देखता हुआ ज्ञान में आत्मपने (अपनेपन से) निःशंकतया प्रवर्तता है । सो ठीक ही है; क्योंकि ज्ञानक्रिया आत्मा की स्वभावभूत क्रिया है, इसकारण उसमें नि:शंकतया प्रवर्तन का निषेध नहीं किया गया है; किन्तु यह आत्मा संयोगसिद्ध संबंधवाले आत्मा और क्रोधादि में भी अपने अज्ञान से भेद न जानता हुआ क्रोधादि में भी ज्ञान के समान ही आत्मपने (अपनेपन से)
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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