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________________ ११६ समयसार का जीव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध क्यों नहीं है ? शिष्य की इस आशंका का समाधान आगामी चार गाथाओं में अनेक युक्तियों से किया जा रहा है। तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवंति वर्णादयः । संसारप्रमुक्तानां न सन्ति खलु वर्णादयः केचित् ।।६१।। जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि। जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित् ।।२।। अथ संसारस्थानां जीवानां तव भवंति वर्णादयः। तस्मात्संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्नाः ।।६३।। एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते । निर्वाणमुपगतोऽपि च जीवत्वं पुद्गलः प्राप्तः ।।६४।। यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षण: सम्बन्ध: स्यात् ।। ततः सर्वास्वप्यवस्थासुवर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षण: सम्बन्ध: स्यात् । (हरिगीत ) जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहे। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ।।६१।। वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह। तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ?।।६२।। मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में। तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे।।३।। यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी। बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ।।६४।। वर्णादिभाव संसारी जीवों के ही होते हैं, मुक्त जीवों के नहीं। यदि तुम ऐसा मानोगे कि ये वर्णादिभाव जीव ही हैं तो तुम्हारे मत में जीव और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। यदि तम ऐसा मानो कि संसारी जीव के ही वर्णादिक होते हैं: इसकारण संसारी जीव तो रूपी हो ही गये, किन्तु रूपित्व लक्षण तो पुद्गलद्रव्य का है। अतः हे मूढ़मति ! पुद्गलद्रव्य ही जीव कहलाया। अकेले संसारावस्था में ही नहीं, अपितु निर्वाण प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हुआ। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो वस्तु सर्व अवस्थाओं में जिस भावस्वरूप हो और किसी भी अवस्था में उस भावस्वरूपता को न छोड़े; उस वस्तु का उन भावों के साथ तादात्म्यसंबंध होता है। पुद्गल अपनी
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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