SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ समयसार (१०) अप्रीतिरूप द्वेष भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । ये मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणा: प्रत्ययास्ते सर्वेऽपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यद् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रांतरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यःशक्तिसमूहलक्षणो वर्गः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य पुदगलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा सा सर्वाऽपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि मंदतीव्ररसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपिन संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि स्वपरैकत्वाध्यासेसति विशद्धचित्परिणामातिरिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । (११) यथार्थतत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप (मिथ्यात्वरूप) मोह भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (१२) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं - ऐसे प्रत्यय (आस्रव) भी जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (१३) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय - ये आठों कर्म जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (१४) छह पर्याप्तियों और तीन शरीरों के योग्य पुद्गलस्कन्धरूप नोकर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (१५) कर्म के रस की शक्तियों अर्थात् अविभागप्रतिच्छेदों का समूहरूप वर्ग भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। __ (१६) वर्गों के समूहरूप वर्गणा भी जीव नहीं है; क्योंकि वर्गणा भी पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (१७) मन्द-तीव्र रसवाले कर्मसमूह के विशिष्ट न्यास (जमाव) रूप अर्थात् वर्गणा के समूह रूप स्पर्धक भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (१८) स्व-पर के एकत्व के अध्यास होने पर, विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्नरूप है लक्षण
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy