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________________ REFE से नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं, घृणा का भाव भी व्यक्त करते रहते हैं। उन्हें एक बार नग्नता को निर्विकारी दृष्टि से देखना चाहिए। अन्य दर्शनों में भी नग्नता को ही साधु का उत्कृष्ट रूप माना गया है। परमहंस नामक परमत (जैनेतर) के साधु भी नग्न रहते हैं - ऐसा उनके ही पुराणों में उल्लेख है। हाँ, निर्विकारी हुए बिना नग्नता निश्चित ही निन्दनीय है। नग्नता के साथ निर्विकारी होना अनिवार्य है। | केवल तन से नग्न होने का नाम दिगम्बरत्व नहीं है। राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारी भावों से मन (आत्मा) की नग्नता के साथ तन की नग्नता ही सच्चा दिगम्बरत्व है। इस नग्नता को कभी भी लज्जाजनक, अशिष्ट एवं अश्लील नहीं कहा जा सकता। ऐसी नग्नता तो परम पूज्य है, आदर्श है, अत: अनुकरणीय है। हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ऋषि शुक्राचार्य के कथानक से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि तन की नग्नता के साथ मन का निर्विकारी होना अत्यन्त आवश्यक है; अन्यथा जो नग्नता पूज्य है वही निन्दनीय हो जाती है। कहा जाता है कि शुक्राचार्य युवा थे, पर शिशुवत् निर्विकारी थे अत: सहज भाव से नग्न रहते थे। एक दिन वे उस तालाब के किनारे से जा रहे थे, जहाँ ऋषि कन्यायें निर्वस्त्र होकर स्नान व जलक्रीड़ा कर रही थीं। वे शुक्राचार्य को देखकर भी वैसी नग्न अवस्था में ही स्नान करती रहीं, जरा भी नहीं लजाई। ऋषि कन्यायें व शुक्राचार्य दोनों ही एक-दूसरे की नग्नता से जरा भी प्रभावित नहीं हुए। थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के वयोवृद्ध पिता वहाँ से निकले । उन्हें देखते ही सभी ऋषि कन्यायें लजा गईं। वे न केवल लजाईं, क्षुब्ध भी हो गईं। जल क्रीड़ा छोड़कर भागी और सबने वस्त्र पहन लिए। देखो! वे ऋषि कन्यायें युवक को नग्न देख तो लजाई नहीं और एक वृद्ध व्यक्ति को देख लजा गईं। जरा सोचिए! इसका क्या कारण हो सकता है ? बस यही न कि तन से नंगा युवक मन से भी नंगा था, निर्विकारी था। और उसके पिता अभी मन से पूर्ण निर्विकारी नहीं हो सके थे। यह बात नारियों की निगाह से छिपी नहीं रही, रह भी नहीं सकती थी। कोई कितना भी क्यों न छिपायें, पर मन का विकार तो सिर पर चढ़कर बोलता है। कहा भी है - "मुखाकृति कह देत है, मैले मन की बात"
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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